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________________ १८६ समवाय ३४ : टिप्पण (२४) नौ स्वर्ण-कमलों का निर्माण । दो कमल भगवान् के दोनों पैरों के नीचे होते हैं और सात पीछे होते हैं। ज्योंज्यों भगवान् चलते हैं, त्यों-त्यों सबसे पीछे का कमल आगे आ जाता । यह क्रम सतत चलता रहता है । (३१) पक्षी प्रदक्षिणा करते हैं । (३२) पवन अनुकूल होता (३३) वृक्ष प्रणत हो जाते हैं । (३४) दुन्दुभि बजती है ।' २. अर्द्धमागधी भाषा में (अद्धमागहीए भासाए ) भगवान् महावीर अर्धमागधी भाषा में प्रवचन करते थे । जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी है । इसे उस समय की देवभाषा' और इसका प्रयोग करने वाले को भाषार्य कहा है। यह प्राकृत का ही एक रूप है। यह मगध के आधे भाग में बोली जाती है । इसमें मागधी और दूसरी भाषाओं - अठारह देशी भाषाओं के लक्षण मिश्रित हैं। इसमें मागधी शब्दों के साथ-साथ देश्य शब्दों की भी प्रचुरता है । इसलिए यह अर्द्धमागधी कहलाती है । भगवान् महावीर के शिष्य मगध, मिथिला, कौशल आदि अनेक प्रदेश, वर्ग और जाति के थे। इसलिए जैन साहित्य की प्राचीन प्राकृत में देश्य शब्दों की बहुलता है । 'मागधी और देश्य शब्दों का मिश्रण अर्ध मागधी कहलाता है - यह चूर्णि का मत संभवत: सबसे प्राचीन है। इसे आप भी कहा जाता है ।' आचार्य हेमचन्द्र ने आर्ष कहा, उसका मूल आगम का ऋषिभाषित शब्द है ।' तत्त्वार्थ की वृत्ति के अनुसार अर्द्धमागधी भाषा वह होती है जिसमें आधे शब्द मगध देश की भाषा के हों और आधे शब्द भारत की अन्य सभी भाषाओं के हों । इसीलिए अगले तेवीसवें अतिशय की व्याख्या में कहा गया है कि भगवान् की भाषा सभी के लिए सुबोध्य हो जाती है । वृत्तिका' ने प्राकृत आदि छह भाषाओं --- प्राकृत, सौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका और अपभ्रंश में मागधी को गिनाया है । यह अर्द्धमागधी भाषा ही है। इसके लक्षण का निरूपण करते हुए उन्होंने "रसोलंसौ मागध्यां" का उल्लेख किया है । 'र' को 'ल' और 'स' को 'श' हो जाता है, जैसे-नले, हंशे । ३. प्रशान्त चित्त और प्रशान्त मन वाले होकर ( पसंतचित्तमाणसा ) वृत्तिकार ने 'चित्त' का संस्कृत रूप चित्र कर उसका अर्थ विविध किया है। उनके अनुसार इस पद का अर्थ है— राग-द्वेष आदि अनेक प्रकारों के विकारों के कारण जिनके मन विविध प्रकार के हो गए हैं, वैसे वे देव, असुर आदि प्रशान्त मन वाले होकर ( धर्मं सुनते हैं । ) १. प्रवचनसारोद्धार, ४०/४४१-४५० । २. भगवती, ५ / ९३ : देवा णं प्रद्धमागहाए भासाए भाति । ३. पुन्नवणा, १/६२: दासारिया जे गं श्रद्धमागहाए भासाए मासंति । ४. निशीथचूर्णि गद्धविसयमासाणिबद्ध श्रद्धमागहं श्रद्धारसदेसी मासानियतं वा श्रद्धमागहं । ५. प्राकृत व्याकरण (हेम) ८ / १/८३ । ६. ठाणं, ७ / ४८ / १०: छक्कता पागता चेव, दुहा भणितीय ग्राहिया । सरमंडलमि गिज्जेते, पसत्या इसिमासिता || ७. षट्प्राभृत टीका, पृ० १६: सर्वाद्धं मागधीया भाषा भवति। कोऽयं ? प्रद्धं भगवद्भावाया मगधदेश माषात्मक, श्रद्धं च सर्वभाषात्मकम् । ८. समवायांगवृत्ति, पत्र ५६ : प्राकृतादीनां षण्णां भाषाविशेषाणां मध्ये या मागधी नाम भाषा 'रसोलंसो मागध्या' मित्यादिलक्षणवती सा प्रसमाश्रितस्वकीय समग्रलक्षणाऽर्द्धमागधीत्युच्यते । E. (क) हेमचन्द्र, प्राकृत व्याकरण ४ / २८८ । (ख) युवाचार्य महाप्रज्ञ, तुलसी मंजरी ६५९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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