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________________ समवाश्रौ ६०. से किं तं सूयगडे ? सूयगडे परसमया ससमयपरसमया ३१५ अथ किं तत् सूत्रकृतम् ? णं ससमया सूइज्जंति सूत्रकृते स्वसमयाः सूच्यन्ते परसमयाः सूइज्जति सूच्यन्ते स्वसमयपरसमयाः सूच्यन्ते सूइज्जंति जीवाः सूच्यन्ते अजोवाः सूच्यन्ते अजीवा जीवाजीवाः सूच्यन्ते लोकः सूच्यते अलोकः सूच्यते लोकालोकः सूच्यते । जीवा सूइज्जति सूइज्जति जीवाजीवा सूइज्जंति लोगे सुइज्जति अलोगे सुइज्जति लोगालोगे सुइज्जति । सूत्रकृते जीवाजीवपुण्यपापाश्रव संवरनिर्जराबन्धमोक्षावसानाः पदार्थाः सूयगडे णं जीवाजीव- पुण्णपावासव संवर निज्जर बंध मोक्खावसाना पयत्था सूइज्जंति, सूच्यन्ते श्रमणानां अचिरकालसमणाणं अचिरकालपव्वइयाणं प्रव्रजितानां कुसमय मोह-मोहकुसमयमोह - मोहमइमोहियाणं मतिमोहितानां सन्देहजात सहजबुद्धिपरिणाम- संशयितानां पापकर-मलिनमतिगुण-विशोधनार्थं आशीतस्य संदेहजाय सहजबुद्धि परिणाम संसइयाणं पावकर - मइलम-गुणविसोत्थं किरियावा दिसतस्स चउरासीए अक्रियावादिनां सीए अज्ञानिकवादिनां, आसीतस्स क्रियावादिशतस्य चतुरशीत्याः सप्तषष्ट्याः अकरवाई बत्तीस वि वेणइवाई - तिह तेसट्टानं अगदियितयागं वह किच्चा समए ठाविज्जति । द्वात्रिंशतो वैनयिकवादिनां त्रयाणां त्रिषष्टिकानां अन्य दृष्टिकरातानां व्यूहं कृत्वा स्वसमये स्थाप्यते । नाणादिट्ठतवयण निस्सारं नानादृष्टान्तवचन- निस्सारं सुष्ठ सुट्ठ दरिसयंता विविवित्थरा दर्शयन्तौ विविध विस्तारानुगमपरमगम- परमसम्भाव-गुण - विसिट्टा सद्भाव-गुण-विशिष्टी मोक्षपथाव मोक्aहोयारगा उदारा तारकौ उदारौ अज्ञानतमोऽन्धकारअण्णा मंधकारदुग्गे दोवभूता दुर्गेषु दीपभूतौ सोपाने चैव सिद्धिसोवाणा चेव सिद्धिसुगइ सुगतिगृहोत्तमस्य निःक्षोभ निष्प्रकम्पौ घरुत्तमस्स णिक्खोभ-निप्पकंपा सूत्रार्थी । सुत्तत्था । - सूयगडस्स णं परिता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुतीओ। Jain Education International सूत्रकृतस्य परीताः वाचना: संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः, प्रतिपत्तय: संख्येया: वेष्टका: संख्येया: श्लोकाः संख्येयाः निर्युक्तयः । For Private & Personal Use Only प्रकीर्णक समवाय: सू० ६० ६०. सूत्रकृत क्या है ? सूत्रकृत में स्व- समय की सूचना पर समय की सूचना तथा स्व-समय पर समयदोनों की सूचना दी गई है । जीवों की सूचना, अजीवों की सूचना तथा जीवअजीव - दोनों की सूचना दी गई है। लोक की सूचना, अलोक की सूचना तथा लोकअलोक - दोनों की सूचना दी गई है। इसमें जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष पर्यन्त पदार्थों की सूचना दी गई है । इसमें कुतीर्थिकों के अयथार्थ बोध से उत्पन्न मोह-व्यूह से मूढ़ मति वाले, संदेहजात और सहजबुद्धि के परिणाम से संदिग्ध मन वाले नव प्रव्रजित श्रमणों की पापकारी मलिन बुद्धि के गुण का विशोधन करने के लिए एक सौ अस्सी क्रियावादियों, चौरासी अक्रियावादियों, सड़सठ अज्ञानवादियों तथा बत्तीस वैनयिकवादियों - इस प्रकार तीन सौ तिरसठ अन्य दृष्टियों का व्यूह ( प्रतिक्षेप) कर स्व- समय की स्थापना की गई है । इसके सूत्र और अर्थ कुतीर्थिकों द्वारा उपन्यस्तदृष्टान्त वचन की निस्सारता का सम्यक् प्रदर्शन करते हैं । ये विविध विस्तरानुगम और परमसद्भाव- इन दोनों गुणों से विशिष्ट हैं । ये मोक्षपथ के अवतारक, उदार, अज्ञानरूपी तमस् अन्धकार से दुर्गम तत्त्व मार्ग के लिए दीपभूत हैं । ये सिद्धिगति रूप उत्तम प्रासाद के लिए सोपानतुल्य हैं तथा निःक्षोभ और निष्प्रकंप 1 सूत्रकृत की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येव हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, और नियुक्तियां संख्येय हैं । www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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