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________________ समवानो ३१४ प्रकीर्णक समवाय : सू०८६ २६. आचार क्या है ? ५९. से कि तं आयारे? अथ कोऽयमाचारः? आयारे णं समणाणं निग्गंथाणं आचारे श्रमणानां निर्ग्रन्थानां आचारभाग -टाण- गोचर -विनय -वैनयिक -स्थान -गमन गमण-चंकमण-पमाण-जोगजंजण- चंक्रमण -प्रमाण - योगयोजन - भाषाभासा-समिति- गुत्ती - सेज्जोवहि- समिति - गुप्ति - शय्योपधि -भक्तपानभत्तपाण · उग्गमउप्पायणएसणा- उद्गमोत्पादनेषणाविशोधि - शुद्धाशुद्धविसोहि • सुद्धासुद्धग्गहण - वय- ग्रह्ण-व्रत - नियम - तप - उपधानणियमतवोवहाण - सुप्पसत्थ- सूप्रशस्तमाख्यायते। माहिज्जइ। आचार में श्रमण-निर्ग्रन्थों के सुप्रशस्त आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योग-योजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त-पान, उद्गम-विशुद्धि, उत्पादनविशुद्धि, एषणा-विशुद्धि, शुद्धाशुद्धग्रहण का विवेक, व्रत, नियम, तप-उपाधान का निरूपण किया गया है। से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, स समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तं जहा-णाणायारे दंसणायारे तद्यथा—ज्ञानाचार: दर्शनाचारः चरित्तायारे तवायारे वीरिया- चरित्राचार: तप आचारः वीर्याचारः । यारे। संक्षेप में आचार पांच प्रकार का है,६ जैसे-१. ज्ञान आचार २. दर्शन आचार ३. चरित्र आचार ४. तप: आचार ५. वीर्य आचार। आयारस्स णं परित्ता वायणा आचारस्य परीता: वाचना: संख्येयानि संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः प्रतिपत्तयः पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संख्येयाः वेष्टकाः संख्येयाः श्लोकाः संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ संख्येयाः नियुक्तयः । निज्जत्तीओ। आचार की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा (वेष्टक) संख्येय हैं, श्लोक (अनुष्टुप् आदि वृत्त) संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं। से गं अंगट्टयाए पढमे अंगे दो स अङ्गार्थतया प्रथममङ्गम् द्वौ सयक्खंधा पणवीसं अज्झयणा श्रतस्कन्धौ पञ्चविंशतिः अध्ययनानि पंचासीई उद्देसणकाला पंचासीइं पञ्चाशीतिः उद्देशनकालाः पञ्चाशीतिः समसणकाला अट्ठारस समद्देशनकालाः अष्टादश पदसहस्राणि पयसहस्साई पदग्गेणं, संखेज्जा पदाग्रेण, संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः अक्खरा अणंता गमा अणंता गमाः अनन्ताः पर्यायाः परीताः प्रसाः पज्जवा परित्ता तसा अणंता अनन्ताः स्थावराः शाश्वताः कृताः थावरा सासया कडा णिबद्धा निबद्धाः निकाचिताः जिनप्रज्ञप्ताः णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा भावा: आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते आधविज्जंति पण्णविज्जति दर्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदयन्ते। परूविजंति दसिज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति । वह अङ्ग की दृष्टि से पहला अंग है। इसके दो श्रुतस्कंध, पचीस अध्ययन, पचासी उद्देशन-काल, पचासी समुद्देशनकाल, पद परिमाण से अठारह हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम (अर्थपरिच्छेद) और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। से एवं आया एवं गाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता विण्णाया एवं चरण-करण- एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते परूवणया आघविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते पणविज्जति परूविज्जति उपदय॑ते । सोऽयमाचारः । दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति सेत्तं आयारे। इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा'-आचारमय, ‘एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस प्रकार आचार में चरण-करण-प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । यह है आचार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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