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समवाश्र
सेणं अंगवाए दोच्चे अंगे दो सुयक्खंधा तेवोसं अयणा तेत्तीस उद्देसणकाला तेतीसं समुद्देणकाला छत्तीसंपदसहस्साई पग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा अनंता गमा अनंता पज्जवा परित्ता तसा अता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जंति पण विज्जंति परुविज्जति दंसिज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति ।
से एवं आया एवं णाया एवं बिष्णाया एवं
परूवणया
पण विज्जति
दंसिज्जति
उवदंसिज्जति । सेत्तं सूयगडे ।
अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता चरण-करण एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते आघविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दर्श्यते निदर्श्यते परूविज्जति उपदर्श्यते । तदेतत् सूत्रकृतम् । निदंसिज्जति
१. से कि तं ठाणे ?
ठाणे णं ससमया ठाविज्जंति परसमया ठाविज्जंति ससमय परसमया ठाविज्जंति जोवा ठाविज्जंति अजीवा ठाविज्जंति जीवाजीवा ठाविज्जंति लोगे ठाविज्जति अलोगे ठाविज्जति लोगालोगे ठाविज्जति ।
ठाणे णं दव्व-गुण-खेत्त-कालपज्जव पयत्थाणं
संगी
१. सेला सलिलाय समुद्दसुरभवगविमाण आगर नदीओ । हिओ पुरिसज्जाया, सरा य गोत्ता य जोइसंचाला ॥
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तत् अङ्गार्थतया द्वितीयमङ्गम् द्वौ श्रुतस्कन्धौ त्रयोविंशतिः अध्ययनानि त्रयस्त्रिंशदुद्देशनकाला: त्रयस्त्रिशत् समुद्देशन कालाः षट्त्रिंशत् पदसहस्राणि पदाग्रेण, संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः गमाः अनन्ता पर्यायाः परीताः साः अनन्ताः स्थावराः शाश्वताः कृताः निबद्धा: निकाचिताः जिनप्रज्ञप्ताः भावाः आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते ।
अथ किं तत् स्थानम् ?
स्थाने स्वसमयाः स्थाप्यन्ते परसमया: स्थाप्यन्ते स्वसमयपरसमयाः स्थाप्यन्ते जीवाः स्थाप्यन्ते अजोवा: स्थाप्यन्ते जोवाजोवा: स्थाप्यन्ते लोकः स्थाप्यते अलोक: स्थाप्यते लोकालोकः स्थाप्यते ।
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स्थाने द्रव्य - गुण क्षेत्र काल-पर्यवा: पदार्थानाम्---
संग्रहणी गाथा
शैलाः सलिलाश्च समुद्र
सूरभवनविमानआकरनद्य: ।
निधय: पुरुषजाताः, स्वराश्च गोत्राणि च ज्योतिः संचाराः ॥
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प्रकीर्णक समवाय: सू० ६१
यह अंग की दृष्टि से दूसरा अंग है । इसके दो श्रुतस्कंध, तेईस अध्ययन, तेतीस उद्देशन - काल" तेतीस समुद्देशनकाल, पद-प्रमाण से छत्तीस हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है ।
इसका सम्यक् अध्यय करने वाला 'एवमात्म |' सूत्रकृतमय, 'एवं ज्ञाता' 'और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस प्रकार सूत्रकृत में चरण करण- प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह है सूत्रकृत ।
१. स्थान क्या है ?
स्थान में स्व- समय की स्थापना, परसमय की स्थापना तथा स्व-समय पर समय - दोनों की स्थापना की गई है। जीवों की स्थापना, अजीवों की स्थापना तथा जीव अजीव - दोनों की स्थापना की गई है। लोक की स्थापना, अलोक की स्थापना तथा लोक- अलोकदोनों की स्थापना की गई है ।
इसमें पदार्थों के द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल और पर्यंव की स्थापना की गई है।
इसमें पर्वत, सलिला ( महानदी ), समुद्र, सूर्य, भवन, विमान, आकर, नदी (छोटी नदी), निधि, पुरुषों के प्रकार, स्वर, गोत्र, ज्योतिष्चक्र का संचलन - इन सबका प्रतिपादन किया गया है ।
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