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________________ समवानो ३१७ प्रकीर्णक समवाय : सू० ६२ एक्कविहवत्तव्वयं दुविहवत्तव्वयं एकविधवक्तव्यकं द्विविधवक्तव्यकं जाव दसविहवतव्वयं जोवाण यावत् दशविधवक्तव्यकं जीवानां पोग्गलाण य लोगट्ठाइणं च पुद्गलानां च लोकस्थायिनां च प्ररूपणा परूवणया आघविज्जति। आख्यायते । इसमें एक विध वक्तव्यता (पहले स्थान में), द्विविध वक्तव्यता (दूसरे स्थान में) यावत् दशविध वक्तव्यता (दसवें स्थान में) है। इसमें जीव, पुद्गल और लोकस्थायी (धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों) की प्ररूपणा की गई है। स्थान की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्येय हैं। ठाणस्स णं परित्ता वायणा स्थानस्य परीता: वाचना: संख्येयानि संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ अनुयोगद्वाराणि संख्येयाः प्रतिपत्तयः पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संख्येयाः वेष्टकाः संख्येयाः श्लोकाः संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ संख्येयाः नियुक्तयः संख्येयाः संग्रहण्यः । निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संगहणीओ। से गं अंगट्ठयाए तइए अंगे एगे तत् अङ्गार्थतया तृतीयमङ्गम् एकः सुयक्खंधे दस अज्झयणा एक्कवीसं श्रुतस्कन्धः दश अध्ययनानि एकविंशतिः उद्देसणकाला एक्कवीसं समुद्देसण- उद्देशन कालाः एकविंशतिः काला बावतरि पयसहस्साई समुद्देशनकालाः द्विसप्ततिः पदसहस्राणि पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा पदाग्रेण, संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः अणंता गमा अणंता पज्जवा गमाः अनन्ताः पर्यवाः परीताः त्रसाः परित्ता तसा अणंता थावरा अनन्ता: स्थावराः शाश्वताः कृताः सासया कडा णिबद्धा णिकाइया निबद्धाः निकाचिताः जिनप्रज्ञप्ताः जिणपण्णत्ता भावा आधविजंति भावाः आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते पण्णविज्जति परूविज्जति प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते । दंसिज्जति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जति। यह अंग की दृष्टि से तीसरा अंग है। इसके एक श्रुतस्कंध, दस अध्ययन, इक्कीस उद्देशन-काल", इक्कीस समुद्देशन-काल, पद-प्रमाण से बहत्तर हजार पद, संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। से एवं आया एवं णाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला विण्णाया एवं चरण-करण एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते 'एवमात्मा,-स्थानमय, ‘एवं ज्ञाता, परूवणया आघविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दय॑ते निदय॑ते और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस पण्णविज्जति परूविज्जति उपदर्श्यते । तदेतत् स्थानम् । प्रकार स्थान में चरण-करण-प्ररूपणा इंसिज्जति निदंसिज्जति का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन उवदंसिज्जति । सेत्तं ठाणे। निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह है स्थान । १२. से कि तं समवाए ? अथ कोऽयं समवायः? ६२. समवाय क्या है ? समवाए णं ससमया सूइज्जंति समवाये स्वसमयाः सूच्यन्ते परसमयाः । समवाय में स्वसमय की सूचना, परपरसमया सूइज्जति ससमय- सच्यन्ते स्वसमय-परसमयाः सच्यन्ते समय की सूचना तथा स्वसमय और परसमया सूइज्जति जीवा जीवाः सूच्यन्ते अजीवाः सूच्यन्ते परसमय—दोनों की सूचना दी गई है। जीवों की सूचना, अजीवों की सूचना सूइज्जति अजीवा सूइज्जति जीवाजीवाः सूच्यन्ते लोकः सूच्यते तथा जीव-अजीव-दोनों की सूचना जीवाजोवा सूइज्जति लोगे अलोकः सूच्यते लोकालोकः सूच्यते । दी गई है। लोक की सूचना, अलोक सूइज्जति अलोगे सूइज्जति की सूचना तथा लोक-अलोक-दोनों की सूचना दी गई है। लोगालोगे सूइज्जति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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