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________________ समवायो प्रकीर्णक समवाय : सू० १५५-१६० १५५. पज्जत्तगाणं भंते! नेरइयाणं पर्याप्तकानां भदन्त ! नैरयिकाणां १५५. भंते ! पर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति केवयं कालं ठिई पण्णत्ता? कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? कितने काल की है ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वास- गौतम ! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि सहस्साइं अंतोमुत्तूणाई उक्को- अन्तर्मुहूर्तोनानि, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतो. सागरोपमाणि अन्तर्मु हतॊनानि। गौतम ! उनकी स्थिति जघन्यतः दस हजार वर्ष में अन्तर्मुहूर्त न्यून और उत्कृष्टतः तैतीस सागरोपम में अन्तर्मुहर्त न्यून है। मुहत्तणाई। १५६. इमोसे गं रयणप्पभाए पुढवीए, अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः, एवं १५६. रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों (नरकों) की एवं जाव विजय-वेजयंत-जयंत- यावत् विजय-वेजयन्त-जयन्त- यावत् भंते ! विजय, वैजयन्त, जयंत अपराजियाणं भंते! देवाणं अपराजितानां भदन्त ! देवानां कियन्तं और अपराजित देवों की स्थिति कितने केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? काल की है ? गोयमा ! जहणणं बत्तीसं साग- गौतम ! जघन्येन द्वात्रिंशत सागरोपरोवमाई उक्कोसेणं तेत्तीसं साग- माणि उत्कर्षेण त्रयस्त्रिशत रोवमाई। सागरोपमाणि। गौतम ! उनकी स्थिति जघन्यत: बत्तीस सागरोपम और उत्कृष्टतः तैतीस सागरोपम की है। १५७. सव्वटटे अजहण्णमणुक्कोसेणं सर्वार्थे अजघन्यानुत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् १५७. सर्वार्थसिद्ध की स्थिति जघन्यतः और तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। उत्कृष्टतः तैतीस सागरोपम की है। पण्णत्ता। सरीर-पदं शरीर-पदम् शरीर-पद प ति भंते ! सरीरा पण्णता? कति भदन्त ! शरीराणि प्रज्ञप्तानि ? १५८. भंते ! शरीर कितने हैं ? गोयमा! पंच सरीरा पण्णत्ता, गौतम ! पञ्च शरीराणि प्रज्ञप्तानि, तं जहा-ओरालिए वेउन्विए तद्यथा-औदारिकं वैक्रियं आहारक आहारए तेयए कम्मए। तैजसं कर्मकम् । गौतम ! शरीर पांच हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कर्मक (कार्मण)। १५६. ओरालियसरीरे णं भंते ! कइविहे औदारिकशरीरं भदन्त ! कतिविधं १५६. भंते ! औदारिक शरीर कितने प्रकार पण्णते? प्रज्ञप्तम् ? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तं गौतम ! पञ्चविघं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- गौतम ! वह पांच प्रकार का है, जैसेजहा-एगिदियओरालियसरोरे एकेन्द्रियऔदारिकशरीरं यावत् गर्भा- एकेन्द्रिय औदारिकशरीर यावत् जाव गम्भवक्कंतियमणुस्स- वक्रान्तिकमनुष्यपञ्चेन्द्रियऔदारिक - गर्भावक्रान्तिक - मनुष्य - पञ्चेन्द्रियपंचिदियओरालियसरीरे य। शरीरं च । औदारिक-शरीर। १६०. ओरालियसरीरस्स णं भंते! औदारिकशरीरस्य भदन्त! कियन्महती १६०. भंते ! औदारिक शरीर की अवगाहना केमहालिया सरीरोगाहणा शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ? कितनी बड़ी है ? पण्णत्ता? गोयमा! जहण गौतम ! जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयअसंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं भागं उत्कर्षेण सातिरेक योजनसाइरेगं जोयणसहस्सं। सहस्रम् । गौतम! जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्टतः हजार योजन से कुछ अधिक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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