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________________ ३५० समवायो प्रकोणक समवाय : सू० १५२-१५४ १५२. एवं ईसाणाइसु -अट्ठावीसं बारस एवं ईशानादिषु-अष्टाविंशतिः द्वादश १५२. इसी प्रकार-ईशान देवलोक में अटु चत्तारि-एयाई सयसहस्साई, अष्ट चत्वारि-एतानि शतसहस्राणि अट्ठाईस लाख, सनत्कुमार देवलोक में बारह लाख, माहेन्द्र देवलोक में आठ पण्णासं चत्तालीसं छ–एयाइं पञ्चाशत् चत्वारिंशद् षट्-एतानि । लाख, ब्रह्म देवलोक में चार लाख, सहस्साई, आणए पाणए चत्तारि, सहस्राणि, आनते प्राणते चत्वारि, लान्तक देवलोक में पचास हजार, आरणच्चुए तिण्णि-एयाणि आरणाच्युतयोः त्रीणि -एतानि शुक्र देवलोक में चालीस हजार, सहस्रार देवलोक में छह हजार, आनत सयाणि । एवं गाहाहि भाणियव्वं- शतानि । एवं गाथाभि: भणितव्यम् और प्राणत देवलोकों में चार सौ, आरण और अच्युत देवलोकों में तीन संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा सौ-विमानावास हैं। १. बत्तोसट्ठावीसा, १. द्वात्रिंशत् अष्टविशतिः, १,२. कल्प विमानावासों की संख्या का बारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा। द्वादश अष्ट चतुः शतसहस्र ।। पुननिदेश दो संग्रहणी गाथाओं में इस प्रकार हैपण्णा चत्तालोसा, पञ्चाशत् चत्वारिंशत्, १. बत्तीस लाख ६. पचास हजार छच्चसहस्सा सहस्सारे ॥ षट् च सहस्र सहस्रारे ।। २ अट्ठाईस लाख ७. चालीस हजार २. आणयपाणयकप्पे, २- आनतप्राणतकल्पे, ३. बारह लाख ८. छह हजार चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए तिन्नि। चत्वारि शतानि आरणाच्युतयोः त्रीणि । ४. आठ लाख ६.१०. चार सौ ५. चार लाख ११. १२. तीन सौ । सत्त विमाणसयाई, सप्त विमानशतानि, इन चार (९-१२) देवलोकों में सात चउसुवि एएसु कप्पेसु ॥ चतुष्वपि एतेषु कल्पेषु ॥ सो विमानावास हैं। ३. एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु, ३. एकादशोत्तरं अधस्तनेषु, ३. नौ ग्रैवेयक देवलोकों के विमानासत्तुत्तरं च मज्झिमए। सप्तोत्तरं च मध्यमेषु । वासों की संख्या इस प्रकार हैसयमेगं उवरिमए, शतमेकं उपरितनेषु, अधस्तन तीन वेधकों में-REE पंचव अणुत्तरविमाणा॥ विमानावास, मध्यम तीन ग्रंवेयकों मेंपञ्चैव अनुत्तरविमानानि ।। १०७ विमानावास, उपरीतन तीन ग्रेवेयकों में-१०० विमानावास । अनुत्तर देवलोक के पांच विमानावास ठिइ-पदं स्थिति-पदम् स्थिति-पद १५३. नेरडयाणं भंते! केवइयं कालं नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं १५३. भंते ! नरयिकों की स्थिति कितने ठिई पण्णता? स्थितिः प्रज्ञप्ता? काल की है ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वास- गौतम! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि सहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं साग- उत्कर्षेण त्रयस्त्रिशत सागरोपमाणि रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम की। १५४. अपज्जतगाणं भंते ! नेरइयाणं अपर्याप्तकानां भदन्त ! नैरयिकाणां १५४. भंते ! अपर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति केवइयं कालं ठिई पण्णता ? कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? कितने काल की है ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहुर्त गौतम ! उनकी स्थिति जघन्यत: और उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं। उत्कणापि अन्तर्मुहूर्त्तम् । उत्कृष्टत: अन्तर्मुहुर्त की है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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