SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. वैश्रमण (वेसमणे) शक्र के चार लोकपाल हैं - सोम, यम, वरुण और वैश्रमण । वैश्रमण उत्तर दिशा के लोकपाल हैं। ये भवनपति निकाय में रहने वाले सुपर्णकुमार और द्वीपकुमार के देव तथा देवी और व्यन्तर तथा व्यन्तरियों पर आधिपत्य - अनुशासन करते हैं। इनमें दक्षिण दिशा में सुपर्णकुमारों के अड़तीस लाख और द्वीपकुमारों के चालीस लाख भवन हैं। दोनों की सम्मिलित संख्या अठत्तर लाख है । वैश्रमण लोकपाल द्वीपकुमार देवों पर आधिपत्य करता है - यह बात भगवती सूत्र में उल्लिखित नहीं है । प्रस्तुत सूत्र में उसका उल्लेख है । वृत्तिकार के अनुसार यह मतान्तर है ।' प्रस्तुत सूत्र में नेतृत्व के द्योतक पांच शब्द प्रयुक्त हुए हैं । उनका अर्थबोध इस प्रकार है १. आधिपत्य - अनुशासन २. पौरपत्य - अग्रगामिता ३. भर्तृत्व-संरक्षण और पोषण ४. स्वामित्व - स्वामिभाव ५. महाराजत्व - लोकपालभाव । २. अठत्तर वर्ष (अट्टसर वासाई ) गृहस्थ पर्याय- ४८ वर्ष छद्मस्थ पर्याय ६ वर्ष केवली पर्याय - २१ वर्ष कुल योग ७८ वर्ष ३, ४. सूर्य गति करता है ( सूरिए "चरइ ) टिप्पण सूर्य जब दक्षिणायन में गति करता है तब प्रत्येक मंडल में मुहूर्त्त प्रमाण दिन घटता है और इतने ही प्रमाण में रात ६१ बढ़ती है । इस प्रकार जब सूर्य उनतालीसवें मंडल में पहुंचता है तब और इसी प्रमाण में रात बढ़ती है। सूर्य जब उत्तरायण में गति करता है तब प्रत्येक मंडल में ७८ रात घटती है । इस प्रकार उनतालीसवें मंडल में६१ ३. समवायांगवृत्ति, पत्र ८१ । ४. वही, पत्र ८१ । Jain Education International X ३६ ७८ ६१ मुहूर्त्त प्रमाण दिन घटता है २ - मुहूर्त्त प्रमाण दिन बढ़ता है और इतने ही प्रमाण में ६१ १. समवायांगवृत्ति, पक्ष ८१ द्वीपकुमाराधिपत्यमेतस्य भगवत्यां न दृश्यते, इह तूक्तमिति मतान्तरमिदम् । २. वही पत्र ८१ : प्राधिपत्यं – प्रधिपतिकर्म्म पोरेबच्चं – पुरोबत्तित्वं अग्रगामित्वमित्यर्थः, मट्टित्वं - भतृत्व - पोषकत्वं सामित्तं स्वामित्वं स्वामिभावं महाराति महाराजत्वं लोकपालत्वमित्यर्थः । For Private & Personal Use Only मुहूर्त्त प्रमाण दिन बढ़ता है और रात घटती है। www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy