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समवायो
समवाय८: टिप्पण
७. गणधर (गणहरा)
गण और गणधर का नाम समान ही था । स्थानांग (८/३७) में भी आठ गणधरों का उल्लेख है । आवश्यक नियुक्ति (गाथा २६८) में पार्श्व के दस गणधर माने हैं। सम्भव है दो गणधरों का काल अत्यल्प होने के कारण उनकी विवक्षा न
की गई हो, ऐसा वृत्तिकार ने माना है।' ८. शुंभघोष (सुंभघोसे)
स्थानांग (८/३७) तथा कल्पसूत्र (सूत्र ११६) में इसके स्थान पर 'आर्यघोष' है। लिपि-दोष या वाचनान्तर के कारण यह भेद हुआ हो, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । अधिक सम्भावना लिपि-दोष की ही की जा सकती है। ६. यश (जसे)
भावदेवसूरी कृत पार्श्वनाथ चरित्र में पार्श्वनाथ के दस गणधरों के नाम इस प्रकार हैं—आर्यदत्त, आर्यघोष, वशिष्ठ, ब्रह्म, सोम, श्रीधर, वारिसेन, भद्रयश, जय और विजय । १.. प्रमर्दयोग (पमई जोगं)
प्रमर्दयोग का अर्थ है-स्पर्शयोग । प्रस्तुत सूत्रगत आठ नक्षत्र उभययोगी होते हैं। ये चन्द्रमा का उत्तर और दक्षिण-दोनों ओर से स्पर्श करते हैं । चन्द्रमा इनके बीच से निकल जाता है।
प्रस्तुत आगम के वृत्तिकार ने 'लोकधी' तथा उसकी टीका का उद्धरण प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार प्रमर्दयोग वाले ये नक्षत्र कभी-कभी चन्द्रमा का योग करते हैं। लोकश्री के टीकाकार ने इसको स्पष्ट करते हुए लिखा है-ये आठों नक्षत्र उभययोगी होते हैं। चन्द्रमा के उत्तर में तथा दक्षिण में योग करते हैं (होते हैं)। कभी-कभी चन्द्रमा इनका भेद भी कर देता है (स्पर्श कर देता है)।'
१. समवायांगवृत्ति, पन्न १४ :
अष्टौ गणा:-समानवाचनाक्रिया: साधुसमुदायाः, भष्टौ गणधरा:-तन्नामकाः सूरयः, इदं चैतत् प्रमाणं स्थानाङ्ग पर्युषणाकल्पे च श्रूयते, केवलमावश्यके अन्यथा, तन्न ह्य क्तम्-'दस नवगं गणाण माणं जिणिदाणं' ति कोऽर्थः ? -पार्श्वस्य दस गणाः गणधराश्च, तदिह द्वयोरल्पायुष्कत्वादिना
कारणेनाविवक्षाऽनुगन्तव्येति । २. पार्श्वनाथ चरित्र, सर्ग ७, श्लोक १३५२, १३५३ । ३. समवायांगवृत्ति, पन्न १४:
प्रष्टौ नक्षत्राणि चन्द्रेण सार्ध प्रमई-चन्द्र (:) मध्येन तेषां गच्छतीत्येवंलक्षणं योग--सम्बन्धं योजयन्ति-कुर्वन्ति, अवार्थेऽभिहितं लोकश्रियां'पुणन्वसु रोहिणी चित्ता मह जेट्टणराह कित्तिय विसाहा । चंदस्स उभयजोग" न्ति, यानि च दक्षिणोत्तरयोगीनि तानि प्रमईयोगीन्यपि कदाचिद् भवन्ति, यतो लोकधीटीकाकृतोक्तम् -"एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिणेन च युज्यन्ते, कदाचिच्चन्द्रेण भेदमप्युपयान्तीति ।
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