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________________ समवानो ३७ समवायन: टिप्पण महोरग गंधर्व नागवृक्ष तेंदुक । ४. सूत्र ४-५ इन दो आलापकों में सुदर्शन जम्बू तथा कूटशाल्मली की ऊंचाई आठ योजन बताई गई है। स्थानांग ८/६३,६४ के आलापकों में "सातिरेगाई" शब्द अधिक है। उसका स्पष्टीकरण जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (४/१४६,२०८) के आधार पर हो जाता है। वहां कहा गया है कि ये वृक्ष आधे-आधे योजन भूमि में हैं तथा इनके तने की मोटाई आधे-आधे योजन की है। इस आधे-आधे योजन के कारण ही "सातिरेक" शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी आधार पर सर्व परिमाण में ये वृक्ष आठ-आठ योजन से कुछ अधिक हैं। ५. केवली समुद्घात (केवलिसमुग्घाए) __केवली समुद्घात का यह आलापक ठाणं ८/११४ में भी है। उसके टिप्पण में हमने विस्तार से इसकी चर्चा की है। देखें-ठाणं ८/११४, टिप्पण पृ० ८३६-८४० । दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण-ये चार केवली समुद्घात के प्रकार हैं। इनके अांतर भेद इस प्रकार हैं दंड समुद्घात- १. स्थित और २. उपविष्ट । कपाट समुद्घात-१. पूर्वाभिमुख स्थित, २. पूर्वाभिमुख उपविष्ट, ३. उत्तराभिमुख स्थित, ४. उत्तराभिमुख उपविष्ट । प्रतर-एक ही प्रकार । लोकपूरण-एक ही प्रकार। दिगम्बरों की यह मान्यता है कि जिनका आयुष्यकाल केवल छह महीनों का अवशिष्ट रहा हो और तब उन्हें केवलज्ञान हुआ हो तो निश्चित ही उनके समुद्घात होता है। शेष केवलियों के लिए यह निश्चित नियम नहीं है। उनके समुद्घात होता भी है और नहीं भी होता है।' यतिवृषभाचार्य के अनुसार क्षीणकषाय गुणस्थान (बारहवें) के चरम समय में अघात्य कर्मों की स्थिति सम न होने के कारण सभी केवली समुद्घात करके ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार दिगम्बर साहित्य में केवलियों के समुद्घात होने या न होने, आत्म-प्रदेशों का विस्तार, समय की नियामकता, प्रतिष्ठापन का विधिक्रम, समुद्घात के समय होने वाले योग तथा आहारक-अनाहारक आदि-आदि अनेक विषयों की विशद जानकारा प्राप्त होती है। देखें-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-२, पृष्ठ १६६-१६६ । ६. पुरुषादानीय (पुरिसादाणिअस्स) आगम-साहित्य में 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग विशेषतः भगवान् पार्श्व के लिए होता रहा है और वह उनकी लोकप्रियता का सूचक है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'आदानीय पुरुष'-ग्राह्य-पुरुष किया है। कहीं-कहीं इस शब्द का प्रयोग साधु के विशेषण के रूप में भी उपलब्ध होता है। सूत्रकृतांग (१/६/३५) में 'पुरिसादानीय' शब्द प्रयुक्त है। वहां चूणिकार ने उसके तीन अर्थ किये हैं --सेव्यपुरुष, ग्राह्यपुरुष और ग्रहणशीलपुरुष ।' विशेष विवरण के लिए देखें, इसी स्थल का टिप्पण नं० ११५ । १. ठाण८/११६,११७ । २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृष्ठ-१६६ । ३. भगवती आराधना, गाथा २१०६ : उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्मिकेवली जादा । बच्चंति समुग्घाद, सेसा भज्जा समुग्धादे ।। ४. समवायांगवृत्ति, पत्र १४ ॥ ५. सूत्रकृतांगचूणि, पृष्ठ १८३ : पुरुषादानीया: सेव्यन्त इत्यर्थः । ..."प्राज्यामुपेत्य पुरुषादानाया पदा संवृता भवन्ति धर्मलिप्सुभिः पुरुष रादानीयाः। अथवा ग्राह्याः पुरुषा इत्यादानीयाः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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