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समवाश्रा
१४. बंभलोए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं
अट्ट सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । १५. जे देवा अच्च अच्चिमाल वइरोयणं पभंकरं चंदाभं सूराभं सुपइट्टाभं अग्गिच्चाभं रिट्ठाभं अरुणाभं अरुणुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठ सागरोवमाई ठिई
पण्णत्ता ।
१६. ते णं देवा अट्टहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ।
. तेसि णं देवाणं अट्ठहि वास सहस्से हि आहारट्ठे समुपज्जइ ।
१७.
१. मद के स्थान ( मयट्टाणा)
३६
ब्रह्मलोके कल्पे अस्ति एकेषां देवानां अष्ट सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
१८. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये अहिं भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति अष्टभिर्भवग्रहणै: सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते बुभिसंति मुच्चिसंति मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखानापरिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । करिस्सति ।
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ये देवा अचिस, अचिर्मालिनं वैरोचनं १५. अचि, अचिमाली, वैरोचन, प्रभंकर, प्रभंकरं चन्द्राभं सूराभं सुप्रतिष्ठाभं चन्द्राभ, सूराभ, सुप्रतिष्ठाभ, अग्न्यर्चाभिं रिष्टाभं अरुणाभ अरुणो- अग्न्यर्चाभ, रिष्टाभ, अरुणाभ और त्तरावतंसकं विमानं देवत्वेन उपपन्नाः, अरुणोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप तेषां देवानामुत्कर्षेण अष्ट सागरोप- में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट माणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । स्थिति आठ सागरोपम की है ।
ते देवा अष्टानामर्द्धमासानां आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा ।
देखें - ठाणं ८ / २१, टिप्पण पृ. ८३५ ।
२. प्रवचन - माता ( पवयणमायाओ )
भूत
यक्ष
राक्षस
किन्नर
किंपुरुष
तेषां देवानां अष्टभिर्वर्षसहस्रैराहारार्थः १७. उन देवों के आठ हजार वर्षों से भोजन समुत्पद्यते । करने की इच्छा उत्पन्न होती है ।
व्यन्तर देव आठ हैं । प्रत्येक देव के एक-एक चैत्यवृक्ष है-
पिशाच
कदंब
तुलसी
वट
टिप्पण
पांच समितियों और तीन गुप्तियों को प्रवचन-माता कहा जाता हैं। इसके दो कारण है - ( १ ) इन आठों में सारा प्रवचन समा जाता है और ( २ ) आठों से प्रवचन का प्रसव होता है । पहले में 'समाने' का और दूसरे में 'मां' का अर्थ है । विशेष विवरण के लिए देखें - उत्तरज्झयणाणि ( सानुवाद), अ० २४ तथा उत्तरज्भयणाणि ( टिप्पण), पृष्ठ १७१-१७३ । ३. सूत्र ३ :
समवाय ८: सू० १४-१८
१४. ब्रह्मलोककल्प के कुछ देवों की स्थिति आठ सागरोपम की है ।
काण्डक
अशोक
चम्पक
१६. वे देव आठ पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं ।
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१८. कुछ भव- सिद्धिक जीव आठ बार जन्म
ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
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