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________________ समवाश्रो धण धण्ण विभव समिद्धिसार विशेषा: सविसेस भोभवाण सुहविवागोत्तमे । अणुवरयपरंपरानुबद्धा असुभाष सुभाण चैव कम्माण भासिआ बहुविहा विवागा विवागसूयम्मि जिणवरेण भगवया संवेगकारणत्था | मित्रजन-स्वजन-धन-धान्य बहुविकाम - विभव समृद्धिसार - समुदयविशेषाः सोक्खाण बहुविधकामभोगोद्भवानां सौख्यानां विपषु । अवि य एवमाइया, बहुविहा वित्थरेणं अत्थपरूवणया आघविज्जति । विवागसुअस्स णं परिता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ पवित्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुत्तोओ संखेज्जाओ संगहणीओ । सेणं अंगट्टयाए एक्कारसमे अंगे वोसं अज्झषणा वीसं उद्देणकाला वीसं समुद्दे सणकाला संखेज्जाई पयस्य सहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जाई अक्खराई अनंता गमा अनंता पज्जवा परिता तसा अनंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविज्जंति परुविज्जंति निदंसिज्जंति दंसिज्जंति उवदंसिज्जंति । से एवं आया एवं णाया एवं विष्णाया एवं चरण-करण आधविज्जति परूवणया Jain Education International ३३३ - अनुपरतपरम्परानुबद्धाः अशुभानां शुभानां चैव कर्मणां भाषिता: बहुविधा: विपाकाः विपाकश्रुते भगवता जिनवरेण संवेगकारणार्थाः । अन्येऽपि च एवमादिका बहुविधा विस्तरेण अर्थप्ररूपणा आख्यायते । विपाकश्रुतस्य परीता: वाचनाः संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संख्येया: प्रतिपत्तय: संख्येया: वेष्टका: संख्येया: श्लोका: संख्येयाः निर्युक्तयः संख्येयाः संग्रहण्यः । तत् अङ्गार्थतया एकादशमङ्गं विशतिः अध्ययनानि विंशतिः उद्देशनकाला: विशतिः समुद्देशनकाला : संख्येयानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेण संख्येयानि अक्षराणि अनन्ताः गमाः अनन्ताः पर्यवा: परोतास्त्रसा: अनन्ताः स्थावराः शाश्वताः कृताः निबद्धाः निकाचिता: जिनप्रज्ञप्ताः भावा: आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते । अथ एवमात्मा एव ज्ञाता एवं विज्ञाता एवं चरण- करण- प्ररूपणा आख्यायते For Private & Personal Use Only प्रकीर्णक समवाय: सू० ह विशिष्ट प्रकार के मित्रजन, स्वजन, धनधान्य, वैभव, समृद्धि और सार ( सुगन्धी द्रव्य) के समुदय को प्राप्त करते हैं तथा बहुविध कामभोगों से उत्पन्न विशिष्ट प्रकार के सुखों को उत्तम शुभ विपाक वाले जीव प्राप्त करते हैं— उनका आख्यान किया गया है | वैराग्य उत्पन्न करने के लिए भगवान् जिनेश्वर देव ने अविच्छिन्न परम्परा से अनुबद्ध अशुभ और शुभ कर्मों के अनेक प्रकार के विपाकों का वर्णन इस विपाकश्रुत में किया है । ये तथा इसी प्रकार के अन्य विषय इसमें विस्तार से निरूपित हैं । विपाकश्रुत की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्ये हैं । यह अङ्ग की दृष्टि से ग्यारहवां अंग है । इसके बीस अध्ययन, बीस उद्देशनकाल, बीस समुद्देशन-काल, पदप्रमाण से संख्येय लाख पद ( एक करोड़ चौरासी लाख बत्तीस हजार ), संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं । इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत कृत, निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला, 'एवमात्मा' - विपाकश्रुतमय ' एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है। इस www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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