________________
टिप्पण
१. आचार - प्रकल्प (आयारपकप्पे )
आचार-प्रकल्प के दो अर्थ हैं - ( १ ) आचारांग का एक अध्ययन जिसे निशीथ कहा जाता है और (२) साध्वाचार का व्यवस्थापन ।'
२. आरोपणा ( आरोवणा )
प्रथम तीर्थङ्कर के समय में उत्कृष्ट प्रायश्चित्त बारहमास का, मध्यम बाईस तीर्थङ्करों के काल में आठ मास का और चरम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर के काल में वह छह मास का होता है। छह मास से अधिक प्रायश्चित्त नहीं होता और किसी मुनि के अनेक दोष सेवित हो जाते हैं, उनका प्रायश्चित्त छह मास से अधिक प्राप्त होता है। उस स्थिति में आरोपणा के द्वारा प्रायश्चित्त का समीकरण दिया जाता है।
किसी मुनि ने ज्ञान आदि आचार के विषय में कोई अपराध किया। उसे अमुक प्रायश्चित्त दिया गया । तदन्तर उसी मुनि ने कोई दूसरा अपराध भी कर डाला, तब उस मुनि को पहले दिए गए प्रायश्चित्त में वृद्धि कर एक महीने तक वहन करने योग्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसे 'मासिकी आरोपणा' कहते हैं ।
पांच दिन के प्रायश्चित्त से शुद्ध होने वाला तथा एक मास के प्रायश्चित्त से शुद्ध होने वाला - ऐसे दो अपराध हो जाने पर, उस मुनि के पूर्व प्रायश्चित्त में एक मास और पांच दिन के प्रायश्चित्त की आरोपणा करना 'एक मास और पांच दिन की आरोपणा' कही जाती है। इसी प्रकार चार मास और पचीस दिन की आरोपणा की जाती है ।
जिस प्रायश्चित्त में उद्घात -भाग किया जाता है, उसे उद्घातिक (लघु प्रायश्चित्त ) कहा जाता है । जिस प्रायश्चित्त में अनुद्घात - भाग नहीं किया जाता, उसे अनुद्घातिक ( गुरु प्रायश्चित्त ) कहा जाता है।
वर्तमान शासन में तप की उत्कृष्ट अवधि छह मास की है। जिसे इस अवधि से अधिक तप प्राप्त न हो उसकी आरोपण को अपनी अवधि में परिपूर्ण होने के कारण 'कृत्स्ना आरोपणा' कहा जाता है।
जिसे छह मास से अधिक तप प्राप्त हो, उसकी आरोपणा अपनी अवधि में पूर्ण नहीं होती। छह मास से अधिक तप नहीं दिया जाता । उसे उसी अवधि में समाहित करना होता है। इसलिए उसे अपूर्ण होने के कारण 'अकृत्स्ना आरोपणा' कहा जाता है।
३. नौ नो- कषाय ( णव णोकसाया )
नो- कषाय का अर्थ है -- मूल कषायों को उत्तेजित करने वाली प्रकृतियां । वे नौ हैं - ( १ ) स्त्रीवेद, (२) पुरुषवेद, (३) नपुंसकवेद, (४) हास्य, (५) अरति, (६) रति, (७) भय, (८) शोक और (६) जुगुप्सा ।
१. समवायांगवृत्ति, पक्ष ४६:
प्राचारः प्रथमाङ्गं तस्य प्रकल्प प्रध्ययन विशेषो निशीयमित्यपराभिधानं प्राचारस्य या साध्वाचारस्य ज्ञानादि विषयस्य प्रकल्पाव्यवस्थापनमित्याचारप्रकल्पः ।
२. निशीथसून, माग ४, सुखबोधा व्याख्या, पृ० ४१६ ।
३. समवायांगवृत्ति, पन ४६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org