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________________ समवानो ३५९ प्रकीर्णक समवाय : सू० १७८-१८४ गोयमा! छविहे पण्णत्ते, तं गौतम! षडविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-- गौतम ! वह छह प्रकार का है, जैसेजहा–जातिनामनिधत्ताउके जातिनामनिधत्तायुष्कः गतिनामनिघत्ता- १ जातिनामनिषिक्त आयु २. गतिगइनामनिधत्ताउके ठिइनाम- युष्क: स्थितिनामनिधत्तायुष्क: प्रदेश- नामनिषिक्त आयु ३. स्थितिनामनिधत्ताउके पएसनामनिधत्ताउके नामनिधत्तायुष्कः अनूभागनामनिधत्ता- निषिक्त आयु ४. प्रदेशनामनिषिक्त ओगाहणाणामनिधत्ताउके। युष्क: अवगाहनानामनिधत्तायुष्कः । आयु ५. अनुभागनामनिषिक्त आयु ६. अवगाहनानामनि षिक्त आयु। १७८. एवं जाव वेमाणियत्ति। मानिका इति । १७८. इसी प्रकार शेष वैमानिक तक के दंडकों के लिए यही वक्तव्यता है। उववाय-उव्वट्टणा-विरह-पदं उपपात-उद्वर्तना-विरह-पदम् उपपात-उद्वर्तना-विरह-पद १७९. निरयगई णं भंते ! केवइयं कालं निरयगतिः भदन्त ! कियन्तं कालं १७९. भंते ! नरकगति में उपपात का विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? विरहिता उपपातेन प्रज्ञप्ता ? विरहकाल कितना है? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, गौतम ! जघन्येन एक समयं, उत्कर्षण गौतम ! जघन्यतः एक समय का और उक्कोसेणं बारसमुहुत्ते। द्वादशमुहूर्तान् । उत्कृष्टतः बारह मुहूर्त का है। १८०. एवं तिरियगई मणुस्सगई एवं तिर्यग्गति: मनुष्यगति: देवगतिः। १८०. इसी प्रकार तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति देवगई। और देवगति के उपपात का विरहकाल बारह-बारह मुहूर्त का है । १८१.सिद्धिगई णं भंते! केवइयं कालं सिद्धगतिः भदन्त ! कियन्तं कालं १८१. भंते ! सिद्धिगति में सिद्ध होने का विरहिया सिझणयाए पण्णत्ता। विरहिता सिद्धतया प्रज्ञप्ता? विरहकाल कितना है ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं गौतम ! जघन्येन एक समय, उत्कर्षण गौतम ! जघन्यतः एक समय और उक्कोसेणं छम्मासे। षण्मासान् । उत्कृष्टतः छह मास। १८२. एवं सिद्धिवज्जा उव्वट्टणा। एवं सिद्धिवर्जा उद्वर्तना ! १८२. इसी प्रकार सिद्धिगति को वर्जकर चारों गतियों की उद्वर्तना का विरहकाल बारह-वारह मुहर्त का है। १८३. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां १८३. भंते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में नरयिकों पुढवीए नेरइया केवइयं कालं नैरयिकाः कियन्तं कालं विरहिताः के उपपात का विरहकाल कितना है ? विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? उपपातेन प्रज्ञप्ताः ? गोयमा ! जहणेणं एगं समयं, गौतम ! जघन्येन एक समयं, उत्कर्षण गौतम ! जघन्यतः एक समय और उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ता। चतुर्विंशतिः मुहूर्तान् । उत्कृष्टत: चौबीस मुहूर्त। एवं उववायदंडओ भाणियव्वो, एवं उपपातदण्डको भणितव्यः, इसी प्रकार उपपात और उद्वर्तन के उव्वद्रणादंडओ वि। उद्वर्तनादण्डकोऽपि। विषय में जानना चाहिए। आगरिस-पदं आकर्ष-पदम् आकर्ष-पद १८४. नेरइया णं भंते ! जातिनाम- नैरयिकाः भदन्त ! जातिनामनिषिक्ता- १८४. भंते ! नैरयिक जातिनामनिषिवत निहत्ताउगं कतिहि आगरिसेहि यष्क कतिभिराकर्षेः प्रकुर्वन्ति ? आयुष्य कितने आकर्षों से बांधता पगरेंति ? For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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