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________________ समवायो ३६० प्रकीर्णक समवाय सू० १८४-१८८ गोयमा ! सिय एक्केण सिय गौतम ! स्यात् एकेन स्यात् द्वाभ्यां गौतम ! नरयिक जीव कभी एक दोहि सिय तीहि सिय चहि सिय स्यात् त्रिभिः स्यात् चतुर्भिः स्यात् आकर्ष से, कभी दो आकर्षों से, कभी पंचहि सिय छहि सिय सहि सिय पञ्चभिः स्यात् षड्भिः स्यात् सप्तभिः तीन आकर्षों से, कभी चार आकर्षों से, कभी पांच आकर्षों से, कभी छह अहि, नो चेव णं नवहिं। स्यात् अष्टभिः, नो चैव नवभिः । आकर्षों से, कभी सात आकर्षों से और कभी आठ आकर्षों से जातिनामनिषिक्त आयुष्य बांधता है, किन्तु नौ आकर्षों से कदापि नहीं बांधता। १५. एवं सेसाणि वि आउगाणि जाव एवं शेषाण्यपि आयुष्काणि यावत् १८५. इसी प्रकार आयुष्य के गतिनामनिषिक्तवेमाणियत्ति। वैमानिका इति। आयु आदि शेष पांच प्रकार ज्ञातव्य हैं। शेष वैमानिक तक के दंडकों के लिए यही वक्तव्यता है। संघयण-पदं संहनन-पदम् संहनन-पद १८६. कइविहे णं भंते ! संघयणे कतिविधं भदन्त ! संहननं प्रज्ञप्तम् ? १८६. भंते ! संहनन कितने प्रकार का है ? पण्णते? गोयमा ! छविहे संघयणे गौतम ! षड्विधं संहननं प्रज्ञप्तम्, गौतम ! संहनन छह प्रकार का है, पण्णत्ते, तं जहा-वइरोसभनाराय- तद्यथा-वज्रर्षभनाराचसंहननं ऋषभ- जैसे-१. वज्रऋषभनाराच संहनन संघयणे रिसभनारायसंघयणे नाराचसंहननं नाराचसंहननं २. ऋषभनाराच संहनन ३. नाराच नारायसंघयणे अद्धनारायसंघयणे अर्द्धनाराचसंहननं कीलिकासंहननं संहनन ४. अर्द्धनाराच संहनन खीलियासंघयणे छेवट्टसंघयणे। सेवार्तसंहननम् । ५. कीलिका संहनन ६. सेवात संहनन । १७. नेरइया णं भंते ! किसंघयणी? नैरयिकाः भदन्त ! किसंहननाः? १८७. भंते ! नरयिक किस संहनन वाले गोयमा ! छण्हं संघयणाणं गौतम! षण्णां संहननानां असंहननाः- होते हैं ? असंघयणी-णेवटी व छिरा नैवास्थीनि नैव शिरा: नैव स्नायवः, ये गौतम ! नैरयिकों के इन छह संहननों व हारू, जे पोग्गला अणिद्वा पुद्गला: अनिष्टाः अकान्ताः अप्रियाः में से एक भी नहीं होता। वे असंहननी अकंता अप्पिया असुभा अमणुण्णा अशुभाः अमनोज्ञाः अमनआपाः ते तेषां हैं। उनके न अस्थि होता है, न शिरा अमणामा ते तेसि असंघयणताए असंहननतया परिणमन्ति । और न स्नायु । जो पुद्गल अनिष्ट, परिणमंति। अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और मनः प्रतिकूल होते हैं वे उनके असंहनन के रूप में परिणत होते हैं। १८८. असुरकुमारा णं भते ! किसंघ- असरकमारा: भदन्त ! किंसंहननाः १८८. भंते ! असुरकुमार किस संहनन वाले यणी पण्णता? प्रज्ञप्ता:? होते हैं ? गोयमा! छण्हं संघयणाणं गौतम! षण्णां संहननानां गौतम ! असुरकुमारों के इन छह असंघयणी-णेवट्ठी णेव छिरा असंहननाः-नैवास्थीनि नैव शिराः नैव । संहननों में से एक भी नहीं होता। वे णेव हारू, जे पोग्गला इट्ठा कंता स्नायवः, ये पुद्गलाः इष्टाः कान्ताः असंहननी हैं। उनके न अस्थि होता है, पिया सुभा मणुण्णा मणामा ते प्रियाः शुभाः मनोज्ञा: मनआपाः ते न शिरा और न स्नायु । जो पुद्गल तेसि असंघयणत्ताए परिणमंति। तेषां असंहननतया परिणमन्ति । इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, मनोज्ञ और मनोनुकूल होते हैं वे उनके असंहनन के रूप में परिणत होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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