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________________ समवाश्रो ५१ ३. त्रुटितांग - अनेक प्रकार की संगीत ध्वनि करने वाले वृक्ष । ४. दीपांग - प्रकाश करने वाले । ५. ६. 19. ८. ε. १०. ज्योतिअंग - ज्योति का अर्थ है-अग्नि । सुषम- सुषमा काल में अग्नि नहीं होती, अतः अग्नि की भांति सौम्य प्रकाश करने वाले वृक्ष ज्योतिअंग कहलाते हैं । चित्रांग - विवक्षा के अनुसार अनेक प्रकार की मालाओं के हेतुभूत वृक्ष । चित्ररस - विविध प्रकार के मनोज्ञ और मधुर रस देने वाले वृक्ष । इनसे भोजन की आवश्यकता पूरी हो जाती है । मणिअंग --- मणिमय आभरणों के हेतुभूत वृक्ष । गेहाकार - गृह के आकार वाले वृक्ष । इनसे आवास की आवश्यकता पूरी हो जाती है। अनग्न - नग्नत्व को ढकने के लिए उपयोगी वृक्ष い कल्पवृक्षों के संबंध में यही सामान्य या रूढ कल्पना करने मात्र से वे पदार्थ प्रस्तुत हो जाते हैं। भी लुप्त हो गए । सर्वप्रथम इस रूढ मान्यता का कोई पुष्ट आधार नहीं है। समवायांग और स्थानांग में इन वृक्षों के उल्लेख हैं । वहां वृत्तिकार अभय देव सूरी बहुत स्पष्ट हैं। उन्होंने इन वृक्षों को यौगलिकों की अल्प आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन मात्र माना है । यौगलिक मनुष्यों की आवश्यकताएं बहुत कम थीं और वे सब इन वृक्षों से सहजतया पूरी हो जाती थीं । इसलिए इन्हें कल्पवृक्ष कह दिया। इन विभिन्न प्रकार के वृक्षों के भिन्न-भिन्न प्रयोग होते थे, परन्तु ऐसा नहीं था कि किसी कल्पवृक्ष के नीचे खड़े होकर सप्तभौम की कल्पना करने मात्र से सप्तभौम प्रासाद तैयार हो जाता अथवा खीर-पूरी की इच्छा करने मात्र से वह मिल जाता । सारी बातें उपचार से कह दी जाती हैं । १ स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६० १ मत्तंगेसु य मज्जं भाणयाणि मिगेसु । समवाय १० : टिप्पण भारतीय साहित्य में इच्छापूर्ति के साधन स्वरूप तीन चीजें बहुचर्चित हैं-- कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष । कामना करने मात्र से, चिन्तन करने मात्र से और कल्पना करने मात्र से वस्तु की प्राप्ति हो जाना क्रमशः इन तीनों का कार्य माना जाता है । वास्तव में तीनों एक हैं और आवश्यकता पूर्ति के जो-जो साधन हैं वे सब इनके वाचक बन जाते हैं। तुडियगेसु य संगततुडियाई बहुप्पगाराई ॥ २: दीवमिहाजोइसनामया य एए करिति उज्जोय । चित्तंगेसु य मल्लं चित्तरमा भोयणट्टाए || ३ मणियंगेसु य भूषणवराई, भवणाई भवरुखे । श्राइनेसु य धणियं वत्याई बहुप्पगाराई ॥ Jain Education International धारणा रही है कि कल्पवृक्ष मन इच्छित वस्तुओं की संपूर्ति करते हैं । यह भी मान्यता रही है कि यौगलिक परंपरा के साथ-साथ ये कल्पवृक्ष For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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