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समवायो
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समवाय १० : टिप्पण
३. उससे वह..." जीवों के (अंतो मणुस्सखेत्ते.... "पज्जत्तगाणं)
अंगसत्ताणि, भाग १, पृष्ठ ८४० में संख्याङ्क ६ पादटिप्पण दिया हुआ है। वह इस प्रकार है-जाव मणोगए (क, ख, ग), वृत्तौ 'जाव' शब्द नास्ति व्याख्यातः । नावश्यकोपि प्रतिभाति, तेन न स्वीकृतः। उस समय तक हमें 'जाव' पद द्वारा संकेतित पाठ उपलब्ध नहीं हुआ था। अब दशाश्रुतस्कंध (५/७) में वह पाठ उपलब्ध हुआ है और उसे हमने मुलपाठ में स्वीकार किया है। 'जाव' पद के द्वारा संकेतित पाठ यह है —'अंतो मणुस्सखेत्ते अड्डातिज्जेसु दोवसमुद्देसु सण्णीणं पंचदियाणं पज्जतगाणं'।
४. सूत्र ३ :
मिलाएं-ठाणं, १०/२६ ।
मिलाए । ५. सूत्र ४:
मिलाएं-ठाणं १०/७६ ।
६. सूत्र ५ः
मिलाएं-ठाणं १०/८०। ७. ज्ञानवृद्धि करने वाले (नाणविद्धिकरा)
प्रस्तुत आलापक में ज्ञान की वृद्धि करने वाले दस नक्षत्रों का उल्लेख है। ज्ञान की वृद्धि ज्ञानावरण कर्म के क्षय, क्षयोपशम भाव से सम्बन्धित है। आचार्यों की मान्यता है कि कर्मों के उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम ये सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के आधार पर होते हैं। कर्मों के सफल या विपल होने में इन सभी तत्त्वों का प्रभाव होता है।
जब चन्द्रमा की युति इन नक्षत्रों से होती है तब ये नक्षत्र ज्ञान की आराधना के हेतुभूत बनते हैं। इन नक्षत्रों के योग में ज्ञान सीखने या ज्ञान देने की प्रवृत्ति होती है तो ज्ञान की समृद्धि होती है। उस समय ज्ञान अविध्नतया अधीत होता है, श्रुत होता है, व्याख्यात होता है और धारणा में अविचल बन जाता है। विशिष्ट काल ज्ञान की सम्पन्नता में हेतुभूत बनता
है। तुलना-ठाणं १०/१७० । ८. दस प्रकार के वृक्ष (दसविधा रुक्खा)
मनुष्यों के दो प्रकार हैं१. अकर्मभूमिज मनुष्य-यौगलिक मनुष्य । २. कर्मभूमिज मनुष्य-शिल्पकला आदि कर्म करने वाले मनुष्य ।
कर्मभूमिज मनुष्य अपने जीवन की आवश्यकताएं कर्म, शिल्प, विद्या आदि के द्वारा पूरी करते हैं । अक्रर्मभूमिज मनुष्यों की आवश्यकताएं अत्यल्प होती हैं और उनकी पूर्ति वृक्षों से हो जाती है।
प्रस्तुत आलापक में उपयोग में आने वाले अर्थात् आवश्यकता की पूर्ति करने वाले दस प्रकार के वृक्षों का उल्लेख है। स्थानांग १०/१४२ में भी इन्हीं दस वृक्षों का उल्लेख है। वहां इनका उल्लेख सुषम-सुषमा काल के वृक्षों के रूप में हुआ है
और यहां अकर्मभूमिज मनुष्यों के उपभोग में आनेवाले वृक्षों के रूप में हुआ है। यहां शब्द भेद है, अर्थभेद नहीं। १. मत्तांगद (मदांगक)-मत्त होने का हेतु है मदिरा। मदिरा देने वाले अर्थात् ऐसे वृक्ष जिनसे मादक रस झरता
हो ।
२. भृतांग-भृत का अर्थ है भरना और अंग का अर्थ है-कारण। भृतांग अर्थात भाजन । क्योंकि भाजन के बिना
भरणक्रिया नहीं होती। अत: यहां उपलक्षण से भाजन गृहीत है । प्राकृत में भृतांग को "भिंग" कहा गया है। १. स्थानांगवृत्ति, पब ४८: एतनक्षत्रयुक्ते चन्द्रमसि सति ज्ञानस्य-श्रतज्ञानस्योद्देशादिर्यदि क्रियते तदा ज्ञानं समद्धिमपयाति-प्रविघ्नेनाधीयते श्रूयते व्याख्यायते धार्यते वेति, भवति च कालविशेषस्तथाविधकार्येषु कारणं क्षयोपशमादि हेतुत्वात्तस्य, यदाह
'उदयक्खयखमोवसमोबसमा जं चं कम्मणो भणिया । दव्वं खेतं कालं भवं च भावं च संपप्प ।।'
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