SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवायो ३६१ प्रकोणक समवाय : टिप्पण ४५-५३ ४५. अनुयोग (अणुओगे) सूत्र १२७ : ___ अनुयोग का अर्थ है-अनुरूप अथवा अनुकूल योग। इसका तात्पर्य यह है कि सूत्र का अपने अभिधेय के अनुरूप संबंध करना। ४६. मूलप्रथमानुयोग (मूलपढमाणुओगे) सूत्र १२७ : । तीर्थडुरों के सर्वप्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति जिस भव में हुई थी, उस भव के विषय वाले अनुयोग को 'मूलप्रथमानुयोग' कहा गया है। ४७. कंडिकानुयोग (गंडियाणुओगे) सूत्र १२७ ! कंडिका का अर्थ है-समान वक्तव्यता के अधिकार का अनुसरण करने वाली वाक्य-पद्धति । उसका अनुयोग अर्थात् अर्थ प्रकट करने की विधि । ४८ चित्रांतरकंडिका (चित्तंतरगंडियाओ) सूत्र १२६ : इसमें भगवाम् ऋषभ तथा अजित के अन्तराल काल में उनके वंशज राजा अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हुए तथा मोक्ष में गए, उनका प्रतिपादन है। ४६. सूत्र १२६ ईसा की सातवीं शताब्दी के आस-पास रची हुई, 'पञ्चकल्पणि' में कहा गया है कि कालकाचार्य ने कंडिकायें रची थीं। ५०. सूत्र १३८ : देखें प्रज्ञापना, पद १। ५१. सूत्र १४० यहां यावत् शब्द से असुरकुमार, नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधि कुमार, दिक्कुमार, वायुकुमार स्तनित कुमार, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, मनुष्य, वानव्यन्तर तथा ज्योतिष्क-गृहीत हैं। ५२. प्रकाशपुंज (भासरासि) सूत्र १५० : वृत्तिकार ने भासराशि का अर्थ सूर्य किया है, किन्तु इसका शब्दार्थ है प्रकाशराशि। प्रकाशराशि सूर्य, चन्द्र या अन्य कोई भी प्रकाशात्मक वस्तु हो सकती है। भासराशि (भस्मराशि) एक ग्रह का नाम है तथा राख की ढेर का नाम भी भस्मराशि है। यहां भासराशि का अर्थ प्रकाशपुंज अधिक उपयुक्त लगता है, क्योंकि 'अचिमाली जैसी प्रभावाला' यह विशेषण इसके पहले आ चुका है। ५३. बत्तीस सागरोपम (बत्तोसं सागरोवमाइं) सूत्र १५६ : समवाय ३१/8 में इन देवों की जघन्य स्थिति इकतीस सागरोपम की बतलाई है और यहा इनकी स्थिति बत्तीस सागरोपम ही प्रतिपादित है। प्रज्ञापना (४/२६४) तथा उत्तराध्ययन (३६/२४३) में इनकी स्थिति इकतीस सागरोपम १-३. समवायांगवृत्ति, पन १२२ ।। 1. सुवर्णभूमि में कालकाचार्य, पृष्ठ । ५. देखें-ठाण १/१४१-१६ । ६. समवायांगवृत्ति, पत्र १२६ : भासाता प्रकाशानां राशि:-माससाशि:-पावित्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy