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________________ समवायो ३६२ प्रकोणक समवाय : टिप्पण ५४-५६ उल्लिखित है । प्रस्तुत सूत्र में किसी दूसरे मत या वाचना का उल्लेख संकलित है ।' ५४. एक-एक रत्नि हीन होती है (रयणी रयणी परिहायइ) सूत्र १६३ : भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान में सात हाथ, सनत्कुमार और माहेन्द्र में छह हाथ, ब्रह्म और लान्तक कल्प में पांच हाथ, महाशुक्र और सहस्रार में चार हाथ, आनत और प्राणत में तीन हाथ, ग्रेवेयक में दो हाथ और अनुत्तर में एक हाथ । यह देवों के भवधारणीय शरीर की अवगाहना है।' ५५. सूत्र १७२ (१) : अवधिज्ञान के ग्यारह द्वार हैं--- १. भेद ---अवधिज्ञान के दो भेद होते हैं -- भवप्रत्यधिक - तद्-तद् भव में निश्चित रूप से होने वाला अवधिज्ञान । देव और नारकों का। क्षायोपशमिक --आत्म-पवित्रता से लब्ध । मनुष्य और तिर्यञ्चों का। २. विषय-अवधिज्ञान का विषय चार प्रकार का है-- द्रव्यतः . जघन्यत:-तेजस और भाषा के अन्तरालवर्ती पुद्गल । उत्कृष्टतः-सभी रूपी द्रव्य । क्षेत्रत:--जघन्यतः-अंगुल का असंख्यातवां भाग। उत्कृष्टतः-लोक प्रमाण असंख्येय खंड। कालत:---जघन्यतः-आवलिका का असंख्यातवां भाग । उत्कृष्टतः ---असंख्य अतीत और अनागत उत्सपिणी और अवसपिणी । भावतः----जघन्यतः -प्रत्येक द्रव्य के चार पर्याय -वर्ण, गंध, रस और स्पर्श । उत्कृष्टतः-प्रत्येक द्रव्य के असंख्य पर्यायों या सर्वद्रव्यों की अपेक्षा से अनन्त पर्यायों के वर्ण आदि । ३. संस्थान-अवधिज्ञान का आकार इस प्रकार है ... नारकों का छोटी नौका अथवा जल में प्रवाहित काष्ठ समूह के आकारवाला, भवनपति देवों का पल्य के आकारवाला, व्यन्तरदेवों का पटह के आकारवाला, ज्यातिष्क देवों का झल्लरी के आकारवाला, कल्पोपपन्न देवों के मृदङ्ग के आकारवाला, अवेधक देवों का पुष्पावली से रचित शिवरवाली छाब के आकारवाला, अनुत्तर देवों का कुमारी के चोली के आकारवाला अर्थात् लोकनाली के आकारवाला तथा तिर्यञ्च और मनुष्यों का विविध आकारवाला। ४. आभ्यन्तर-नियत अवधि-नारक, देव तथा तीर्थङ्करों का। ५. बाह्य --अनियत अवधि -शेष सभी प्राणियों का। ६. देश-अवधिज्ञान के द्वारा प्रकाश्य वस्तुओं के एक देश (अंश) को जानने वाला। ७. सर्व --अवधिज्ञान के द्वारा प्रकाश्य वस्तुओं के सर्व देश--सभी अंशों को जानने वाला। ८. वृद्धि, ६. हानि-तिर्यञ्च और मनुष्यों का अवविज्ञान वर्द्धमान या हीयमान होता है। शेष जीवों का अवधिज्ञान अवस्थित होता है। १०. प्रतिपाती। ११. अप्रतिपाती।' ५६. आहार पद (आहार पद) सूत्र १७५ : प्रज्ञापना के अठावीसवें पद का नाम 'आहार पद' है। किन्तु यहां वह विवक्षित नहीं है। प्रस्तुत विषय उसमें उल्लिखित १. समवायांगवृत्ति, पान १३०: इह च विजयादिषु जघन्यतो वानिशत्सागदोपमायुक्तानि, गन्धहस्त्यादिष्वपि तथैव दृश्यते, प्रज्ञापनाया त्वेकत्रिशरतति मतान्तरमिदम् । २. वही, पन्न १३२, १३३: 1. (क) नंदी, हारिभद्रीयावृत्ति, पृष्ठ ३०, ३१ । (ख) समवायांगवृत्ति, पत्र ११४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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