SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१ एक्कचत्तालीसइमो समवाम्रो : इकतालीसवां समवाय मूल १. नमिस्स णं अरहओ एक्कवतालोस अज्जियासाहसीओ होत्या । २. चउसु पुढवोसु एक्कचत्तालीस चतसृषु पृथिवोष एकचत्वारिंशद् निरयावाससय सहस्सा पण्णत्ता, निरयावासशतसहस्राणि तं जहा - रयणप्पभाए पंकल्पभाए तद्यथा - रत्नप्रभायां तमाए तमतमाए । तमायां तमस्तमायाम् । प्रज्ञप्तानि, पङ्कप्रभायां ३. महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे एक्कच तालोस उद्देसग काला पण्णत्ता । संस्कृत छाया नमेः अर्हतः एकचत्वारिंशद् आर्यिका - साहस्र्यः आसन् । Jain Education International महत्यां विमानप्रविभक्तौ प्रथमे वर्गे एकचत्वारिंशद् उद्देशन कालाः प्रज्ञप्ताः । टिप्पण १. इकतालीस लाख नरकावास ( एक्कच तालीसं निरयावास सब सहस्सा) २. महतो विमानप्रविभक्ति ( महालियाए णं विमाणपविभतीए ) नंदी (सू०७८) में इसको कालिक श्रुत के अन्तर्गत उल्लिखित किया है । हिन्दी अनुवाद १. अर्हत् नमि के इकतालीस हजार साध्वियां थीं। रत्नप्रभा में तीस लाख, पंकप्रभा में दस लाख, तमा में ६६६६५ और तमतमा में पांच । For Private & Personal Use Only २. रत्नप्रभा, पंकप्रभा, तमा और तमतमा इन चार पृथ्वियों में इकतालीस लाख नरकावास हैं ।' ३. महतीविमानप्रविभक्ति के प्रथम वर्ग में इकतालीस उद्देशन- काल हैं । www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy