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________________ समवाप्रो समवाय ३० : टिप्पण १४. प्रत्याख्यात भोगों की पुनः अभिलाषा करना। १५. अबहुश्रुती होते हुए भी बार-बार अपने को बहुश्रुती बताना । १६. अतपस्वी होते हुए भी तपस्वी बताना। १७. प्राणियों को घेर, वहां अग्नि जला, धुंए की घुटन से उन्हें मारना। १८. अपने अकृत्य को दूसरों के सिर मढ़ना। १६. विविध प्रकार की माया से दूसरों को ठगना । २०. अशुभ आशय से सत्य को मृषा बताना । २१. सदा कलह करते रहना। २२. विश्वास उत्पन्न कर दूसरों के धन का अपहरण करना। २३. विश्वास उत्पन्न कर दूसरों की स्त्रियों को लुभाना। २४. अकुमार होते हुए भी अपने को कुमार कहना। २५. अब्रह्मचारी होते हुए भी अपने आपको ब्रह्मचारी कहना । २६. जिसके द्वारा ऐश्वर्य प्राप्त किया, परोक्ष में उसी के धन की वांछा करना। २७. जिसके प्रभाव से कीर्ति प्राप्त की, उसी को ज्यों-त्यो अन्तराय देना। २८. राजा, सेनापति, राष्ट्रचिन्तक आदि जन-नेताओं को मारना । २६. देव-दर्शन न होते हुए भी 'मुझे देव-दर्शन होता है'-ऐसा कहना । ३०. देवों की अवज्ञा करते हुए अपने आपको देव घोषित करना। २. प्रशास्ता (पसत्थार) वत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-अमात्य अथवा धर्मपाठक।' वैदिक कोश में इसका अर्थ स्तुति-पाठक है।' कौटलीय अर्थशास्त्र में इसके दो अर्थ प्राप्त होते हैं (१) कण्टक-शोधनाध्यक्ष–सामाजिक अपराध करने वालों का शोधन करने वाला। (२) आयुधशाला का अध्यक्ष । ३. निगम-नेता श्रेष्ठी (नेयारं निगमस्स वा, सेटिं) व्यापारियों के समूह को 'निगम' कहा जाता है। आज की तरह उस जमाने में भी विभिन्न वर्गों के व्यापारियों के भिन्न-भिन्न संगठन होते थे और उनका एक-एक अध्यक्ष होता था। प्राचीन भारत में शिल्पियों के संगठन को श्रेणी, व्यापारियों के संगठन को निगम और एक साथ माल लाद कर वाणिज्य करने वालों के संगठन को सार्थ कहते थे। श्रेष्ठी निगम के नेता होते थे और वे राज्य द्वारा मान्य साहूकार होते थे। इनके श्रीदेवी से अंकित एक पट्ट बंधा रहता था। ४. प्रतिकूल चलता है (अवयरई) वृत्तिकार ने 'अवयरई' का अर्थ 'अपकार करना' किया है ।' किन्तु 'अवयरई' पाठ है इसलिए इसका संस्कृत रूप हमने 'अपचरति' किया है। १. समवायांगवृत्ति, पत्न ५१ : प्रशास्तार--अमात्य अथवा धर्मपाठकं वा । २. वैदिक कोष, पृ. ३२०॥ ३ कोटलीय अर्थशास्त्र, परिशिष्ट ३, पृ० २८१, फुटनोट नं०५: कष्टकशोधनाध्यक्षः प्रायुधाध्यक्षश्च । देखो-कौटलीय अर्थशास्त्र का चौथा अधिकरण । ४. समवायांगवृत्ति, पत्र ५१ ॥ ५. वही पत्र ५२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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