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________________ समवायो १६२ समवाय ३०: सू० १३-१६ १३. जे देवा उवरिम-मज्झिम-गेवेज्ज- ये देवा उपरितन-मध्यम- १३. तृतीय त्रिक की द्वितीय श्रेणी के ग्रैवेयक एसु विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, ग्रैवेयकेषु विमानेष देवत्वेन उपपन्नाः, विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तीसं तेषां देवानामुत्कर्षेण त्रिंशत् देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। सागरोपम की है। १४. ते णं देवा तीसाए अद्धमासेहिं ते देवाः त्रिशता अर्द्धमासैः १४. वे देव तीस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा आनन्ति वः प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। वा निःश्वसन्ति वा। १५. तेसि णं देवाणं तीसाए तेषां देवानां त्रिंशता वर्षसहस्र- १५. उन देवों के तीस हजार वर्षों से वाससहस्सेहिं आहारठे राहारार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जइ। १६. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १६. कुछ भव-सिद्धिक जीव तीस बार भवग्गहहिं त्रिशता भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सिज्झिस्संति बुझिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। तीसाए टिप्पण १. मोहनीय स्थान तोस हैं (तीसं मोहनीय ठाणा) महामोहनीय कर्म-बन्ध के तीस कारणों का उल्लेख दशाश्रुतस्कंध (दशा-नौ) में भी हुआ है। उसमें प्रथम पांच स्थान कुछ परिवर्तन के साथ मिलते हैं। वहां दूसरे के स्थान पर पांचवें, तीसरे के स्थान पर दुसरे, चौथे के स्थान पर तीसरे और पांचवें के स्थान पर चौथे कारण का उल्लेख है। शेष कारण समवायांग में उल्लिखित कारणों के समान ही हैं। प्रश्नव्याकरण (वृत्ति, पत्र ८६, ८७) तथा उत्तराध्ययन (वृत्ति, पत्र ६१७, ६१८) में भी महामोहनीय कर्म-बन्ध के तीस कारणों का उल्लेख है। वे दोनों प्रायः समान हैं। प्रश्नव्याकरण की वृत्ति के अनुसार वे इस प्रकार हैं १. त्रस जीवों को पानी में डुबो कर मारना। २. हाथ आदि से मुख आदि अंगों को बंद कर प्राणी को मारना। ३. सिर पर चर्म आदि बांध कर मारना। ४. मुद्गर आदि से सिर पर प्रहार कर मारना। ५. प्राणियों के लिए जो आधारभूत व्यक्ति हैं, उनको मारना । ६. सामर्थ्य होते हुए भी कलुषित भावना से ग्लान की औषधि आदि से सेवा न करना। ७. तपस्वियों को बलात् धर्म से भ्रष्ट करना। ८. दूसरों को मोक्षमार्ग से विमुख कर अपकार करना। ६. जिनदेव की निन्दा करना। १०. आचार्य आदि की निन्दा करना। ११. ज्ञान आदि से उपकृत करने वाले आचार्य आदि की सेवा-शुश्रषा नहीं करना। १२. बार-बार अधिकरण करना। १३. वशीकरण करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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