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समवाश्र
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समवाय ७ : टिप्पण
३. मारणान्तिक समुद्घात - यह मरण के अंतिम समय में होता है । इसमें जीव- प्रदेश आगामी उत्पत्ति के स्थान तक फैलते हैं | धवला के अनुसार जीव के आत्म-प्रदेश ऋजुगति या विग्रहगति के द्वारा अपने उत्पत्ति क्षेत्र तक फैलकर वहां अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं । यह मारणान्तिक समुद्घात है ।
४. वैक्रिय समुद्घात - किसी भी प्रकार की विक्रिया उत्पन्न करने के लिए, मूल शरीर का त्याग न कर, आत्मप्रदेशों का बाहर जाना वैक्रिय समुद्घात है ।
५. तैजस समुद्घात - तैजस शरीर का विसर्पण करना तैजस समुद्घात है । इसका प्रयोजन है अनुग्रह और निग्रह ।
६. आहारक समुद्घात – आहारक ऋद्धि से संपन्न मुनि अपने संशय के निवारण के लिए, मूल शरीर को छोड़े बिना, अपने मस्तिष्क से एक निर्मल स्फटिक के रंग का एक हाथ का पुतला निकालते हैं। वह पुतला जहां कहीं केवली होते हैं। वहां संशय का निवारण कर, प्रश्नकर्त्ता को समाधान दे, पुनः अपने शरीर में प्रवेश कर जाता है । यह आहारक समुद्घात है । इसका कालमान है अन्तर्मुहूर्त्त ।
७. केवली समुद्धात - दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण रूप जीव-प्रदेशों की अवस्था को केवली समुद्घात कहते हैं। यह सभी केवलियों के नहीं होती ।'
३. रत्नि ( रयणीओ)
रत्न का अर्थ है - फैली हुई अंगुलियों सहित हाथ । भगवान् इस माप से सात हाथ ऊंचे थे ।
४. ऊंचे ( उड्ड उच्चत्तेणं)
उच्चत्व दो प्रकार से होता है—ऊर्ध्व उच्चत्व और तिर्यग् उच्चत्व । प्रस्तुत आलापक में भगवान की ऊंचाई ऊर्ध्व उच्चत्व के माप से है । '
५. वर्षधर पर्वत ( वासहरपध्वया)
इसका अर्थ है सीमा करने वाले पर्वत । ये सात हैं। ये सात पर्वत अगले आलापक में वर्णित सात क्षेत्रों की सीमा करते हैं, जैसे—
१. भरत और हैमवत
२. हैमवत और हरिवर्ष
३. हरिवर्ष और महाविदेह
४. महाविदेह और रम्यक्
५. रम्यक् और हैरण्यवत् ६. हैरण्यवत् और ऐरवत
क्षुल्लहिमवान्
महाहिमवान्
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निषध
नील
रुवमी
शिखरी
६. सूत्र ६ :
मोहनीय कर्म का पूरा क्षय बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में होता है। उस अवस्था के धनी छद्मस्थ वीतराग कहलाते हैं । तदनन्तर वे शेष सात कर्म- प्रकृतियों का वेदन करते हैं और तेरहवें गुणस्थान में तीन कर्म प्रकृतियां - ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय और अन्तराय - एक साथ पूर्णतः क्षीण हो जाती हैं। तब वे केवली होकर केवल चार कर्म-प्रकृतियों [ वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य ] का वेदन करते हैं ।
७. पूर्व- द्वारिक ( पुग्वदारिआ ) ... उत्तर-द्वारिक ( उत्तरदारिआ )
इन चार आलापकों [ ८-११] में पूर्वद्वारिक आदि नक्षत्रों का उल्लेख है। सूर्यप्रज्ञप्ति ( १० / १३१ ) में इनका विस्तार से प्रतिपादन हुआ है। वहां छह वर्गीकरण प्राप्त होते हैं । उनमें पांच वर्गीकरण मतान्तर के रूप में तथा एक छठा वर्गीकरण सैद्धान्तिक रूप में स्वीकृत है । सूर्यप्रज्ञप्ति में उल्लिखित अन्यतीर्थिकों की प्रथम प्रतिपत्ति समवायांग में निर्दिष्ट मूल प्रतिपत्ति है । वह इस प्रकार है
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, १/३११, २/४०, ४१, १६६, १६६, ३६४, ३ / २६७, ५६६, ६१२ ।
२. समवायांगवृत्ति पत्र १३ : रत्नि:- वितताङ्गुलिर्हस्त इति ।
३. समवायांगवृत्ति, पत्र, १३ : ऊर्वोच्चत्वेन न तिर्यगुच्चत्वेनेति ।
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