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टिप्पण
१. आजीव भय (आजीवभए)
स्थानांग ७/२७ में 'आजीव भय' के स्थान पर 'वेदना भय' है। २. समुद्घात (समुग्घाया)
इसमें तीन शब्द हैं-सम्, उद् और घात । सम का अर्थ है-एकीभाव, उद् का अर्थ है-प्राबल्य और घात के दो अर्थ हैं-हिंसा करना, जाना । सामूहिक रूप से बलपूर्वक आत्म-प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालना या उनका इतस्ततः विक्षेपण करना अथवा कर्म पुद्गलों का निर्जरण करना, समुद्घात का शाब्दिक अर्थ है।
इसके सात प्रकार यहां निर्दिष्ट हैं। इनमें पहले छह छद्मस्थ अर्थात् अवीतराग व्यक्ति के होते हैं और अंतिम समुद्घात-केवली समुद्घात केवल केवलियों के ही होता है। इन सातों समुद्घातों में भिन्न-भिन्न कर्मों का शाटन होता है।
१. वेदना समुद्घात से वेदनीय कर्म-पुद्गलों का शाटन होता है। २. कषाय समुद्घात से कषाय (मोह) के कर्म-पुद्गलों का शाटन होता है। ३. मारणान्तिक समुद्घात से आयुष्य कर्म-पुद्गलों का शाटन होता है। ४.५.६. वैक्रिय, आहारक और तैजस समुद्घात में तद्-तद् नामकर्म का शाटन होता है ।
सभी समुद्घातों में आत्म-प्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं और उनसे संबंधित कर्म-पुद्गलों का विशेष रूप से परिशाटन (निर्जरण) होता है।
७. केवली समुद्घात के समय आत्मा समूचे लोक में व्याप्त होती है। उसका कालमान आठ समय का है। केवली समुद्घात के समय केवली समस्त आत्म-प्रदेशों को फैलाता हुआ चार समय में क्रमश: दण्ड, कपाट, मंथान और अन्तरावगाह (कोणों का स्पर्श) कर समग्र लोकाकाश को उनसे पूर्ण कर देता है। और अगले चार समयों में क्रमश: उन आत्म-प्रदेशों को समेटता हुआ पूर्ववत् देहस्थित हो जाता है । वह पूरी प्रक्रिया इस प्रकार है
आयुष्य कर्म की स्थिति और दलिकों से जब वेदनीय कर्म की स्थिति और दलिक अधिक होते हैं तब उनको आपस में बराबर करने के लिए केवली समुद्घात होता है। जब सिर्फ अन्तर्मुहुर्त आयुष्य बाकी रहता है तभी समुद्घात होता है । समुद्घात में आठ समय लगते हैं। पहले समय में आत्म-प्रदेश शरीर के बाहर निकलकर दण्डाकार फैल जाते हैं । वह दण्ड ऊंचाई-निचाई में लोक-प्रमाण होता है। पर उसकी मोटाई शरीर के बराबर ही होती है। दूसरे समय में उक्त दण्ड पूर्वपश्चिम या उत्तर-दक्षिण फैलकर कपाटाकार (किंवाड के आकार का) बन जाता है। तीसरे समय में कपाटाकार आत्मप्रदेश पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण में फैलकर मन्थानाकार (मन्थनी के आकार के) बन जाते हैं। चौथे समय में खाली भागों में फैलकर आत्म-प्रदेश समूचे लोक में व्याप्त हो जाते हैं। जिस प्रकार प्रथम चार समयों में आत्म-प्रदेश क्रमश: फैलते हैं वैसे ही अन्त के चार समयों में क्रमश: सिकुड़ते हैं। पांचवें समय में फिर मन्थानाकार, छठे समय में कपाटाकार, सातवें समय में दण्डाकार और आठवें समय में पहले की भांति शरीरस्थ हो जाते हैं। ___ इन आठ समयों में पहले और आठवें समय में औदारिक योग, दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्र योग तथा तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मणयोग होता है।
दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार समुद्घात का अर्थ इस प्रकार है१. बेदना आदि निमित्तों से कुछ आत्म-प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना समुद्घात है।
२. घात का अर्थ है-कर्मों की स्थिति और अनुभाग का विनाश । उत्तरोत्तर होने वाले घात को उद्घात कहते हैं और समीचीन उद्घात को समुद्घात कहते हैं।
३. मूल शरीर को न छोड़कर तैजस और कार्मण शरीर के साथ-साथ जीव-प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना समुद्घात है। समुद्घात सात हैं
१. वेदनीय समुद्घात--वात, पित्त आदि विकारजनित रोग या विषपान आदि की तीव्र वेदना से आत्म-प्रदेशों का बाहर निकलना वेदना समुद्घात है। इसमें उत्कृष्टतः शरीर से तिगुने प्रमाण के आत्म-प्रदेश बाहर विसर्पण करते हैं।
२. कषाय समुद्धात- कषायों की तीव्रता से जीव-प्रदेशों का अपने शरीर से तिगुने प्रमाण में बाहर निकलना कषाय समुद्घात है। १. जैन सिद्धान्त दीपिका ७/२६, ३०, पृष्ठ १४१-१४३ ।
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