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________________ समवायो समवाय १० : सू०३-८ मणपज्जवनाणे वा से असमुप्पण्ण- मनःपर्यवज्ञानं वा तस्य । ७. किसी को अभूतपूर्व मनःपर्यवज्ञान पुटवे समुप्पज्जिज्जा, अंतो असमुत्पन्नपूर्वं समुत्पद्यत, अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे । प्राप्त होता है। उससे वह अढाई द्वीप मणुस्सखेत्ते अड्डातिज्जेसु अतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु संज्ञिनां । और समुद्र-मनुष्यलोक में विद्यमान दोवसमुद्देसु सण्णीणं पंचेंदियाणं पञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तकाना मनोगतान् समनस्क और पर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय पज्जत्तगाणं मणोगए भावे भावान् ज्ञातुम् । जीवों के' मनोगत भावों को जानकर जाणित्तए। चैत सिक समाधान को प्राप्त होता है। केवलनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे केवलज्ञानं वा तस्य असमुत्पन्नपूर्व ८. किसी को अभूतपूर्व केवलज्ञान प्राप्त समुप्पज्जिज्जा, केवलं लोगं समुत्पद्येत, केवलं लोकं ज्ञातुम् । होता है। उससे वह सम्पूर्ण लोक को जाणित्तए। जानकर चतसिक समाधान को प्राप्त होता है। केवलदसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे केवल दर्शनं वा तस्य असमुत्पन्नपूर्व ६. किसी को अभूतपूर्व केवलदर्शन प्राप्त समुप्पज्जिज्जा, केवलं लोयं समुत्पद्येत, केवलं लोकं द्रष्टुम् । होता है। उससे वह सम्पूर्ण लोक को पासित्तए। देखकर चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। केवलिमरणं वा मरिज्जा, केवलिमरणं वा म्रियेत, सर्वदुःख- १०. समस्त दुःखों को क्षीण करने के सव्वदुक्खप्पहीणाए। प्रहाणाय। लिए केवलीमरण को प्राप्त करने वाला चैतसिक समाधान को प्राप्त होता है। ३. मंदरे णं पध्वए मूले मन्दरः पर्वतः मूले दशयोजनसहस्राणि ३. मन्दर पर्वत का मूल दस हजार योजन दसजोयणसहस्साई विखंभेणं विष्कम्भेण प्रज्ञप्तः । चौड़ा है। पण्णत्ते। ४. अरहा णं अरिटुनेमी दस धणूई अर्हन् अरिष्टनेमिः दश धनूंषि ४. अर्हत् अरिष्टनेमि दस धनुष्य ऊंचे थे। __ उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था।। ५. कण्हे णं वासुदेवे दस धणूई कृष्णो वासुदेवः दश धनूंषि ऊर्ध्वमुच्च- ५. वासुदेव कृष्ण दस धनुष्य ऊंचे थे। उड्ढं उच्चत्तेणं होत्या। त्वेन आसीत् । ६. रामे णं बलदेवे दस धणूई उड्ढं रामो बलदेवः दश धनूंषि ऊर्ध्वमुच्च- ६. बलदेव राम दस धनुष्य ऊंचे थे । उच्चत्तेणं होत्था। त्वेन आसीत् । ७. दस नक्खत्ता नाणविद्धिकरा दश नक्षत्राणि ज्ञानवृद्धिकराणि ७. ज्ञानवृद्धि करने वाले' नक्षत्र दस हैं, पण्णत्ता, तं जहाप्रज्ञप्तानि, तद्यथा-- जैसेसंगहणी गाहा--- संग्रहणी गाथा १. मृगशिर ६. पूर्वफल्गुनी २. आर्द्रा ७. मूल मिगसिरमद्दा पुस्सो, मृगशिरः पार्दा पुष्यः, ३. पुष्य ८. अश्लेषा तिणि अ पुव्वा य मूलमस्सेसा। त्रयश्च पूर्वाश्च मूलमश्लेषा। ४. पूर्वाषाढा ६. हस्त हत्यो चित्ता य तहा, हस्तश्चित्रा च तथा, ५. पूर्वभद्रपदा १०. चित्रा । दस विद्धिकराई नाणस्स ॥ दश वृद्धिकराणि ज्ञानस्य ॥ ८. अकम्मभूमियाणं मणआणं अकर्मभूमिजानां मनुजानां दशविधा ८. दस प्रकार के वृक्ष अकर्मभूमिज मनुष्यों दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए वृक्षा उपभोगाय उपस्थिताः प्रज्ञप्ताः, के उपभोग में आते हैं, जैसेउत्थिया पणत्ता, तं जहा- तद्यथा--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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