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________________ समवायो ४३ समवाय ह : टिप्पण किया है और उसकी व्याख्या करते हुए बताया है-स्त्रियों के साथ एकासन पर न बैठे और ऐसे स्थानों पर भी न बैठे जहां स्त्रियां पहले बैठी हुई हों। स्त्रियों के उठ जाने पर, एक मुहुर्त के बाद वहां बैठा जा सकता है।' ३. ब्रह्मचर्य-आचारांग सूत्र के अध्ययन [बंभचेर] वृत्तिकार अभिदेवसूरी ने ब्रह्मचर्य का अर्थ-कुशल अनुष्ठान तथा संयम किया है। उन्होंने इन अनुष्ठानों का वर्णन आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के नौ अध्ययनों में प्रतिबद्ध माना है । इस उपलक्षण से आचारांग के नौ अध्ययनों को अथवा आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध को "ब्रह्मचर्य" शब्द से अभिहित किया है। इसी आगम में अन्यत्र इसे ब्रह्मचर्य से ही उल्लिखित किया है। प्रस्तुत आलापक में अध्ययनों का जो क्रम दिया है, उसमें सातवां "विमोहायतन" और नौवां "महापरिज्ञा" है । वास्तव में “महापरिज्ञा" सातवां अध्ययन है। इसकी व्यवच्छित्ति हो जाने के कारण इसको अन्त में गिनाया गया है। यह बात वृत्तिकार ने इक्यावनवें समवाय की वृत्ति में कही है। देखें-समवाय ५१/१ का टिप्पण । ४. योग करते हैं (जोगं जाएंति) ये नक्षत्र उत्तर दिशा में रहकर दक्षिण दिशा में स्थित चन्द्रमा के साथ योग करते हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति (१०/७५) तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (७/१२८) में चन्द्र के साथ उत्तर से योग करनेवाले १२ नक्षत्रों का उल्लेख है-अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषग, पूर्वभद्रपदा, उत्तरप्रोष्ठपदा, रेवती, अश्विनी, भरणी, पूर्वफल्गुनी, उत्तरफल्गुनी और स्वाती। किन्तु यहां नौ नामों का उल्लेख है । स्थानाङ्ग (६/१६) में भी नौ नामों का उल्लेख है । नवें स्थान में और नवें समवाय में नौ ही नाम हो सकते हैं, इस दृष्टि से नौ नामों का उल्लेख है, यह संभावना नहीं की जा सकती। बारहवें समवाय में भी बारह नामों का उल्लेख किया जा सकता था, किन्तु वैसा नहीं किया गया। इससे सहज ही सम्भावना की जा सकती है कि इस विषय में नौ नक्षत्रों की कोई प्राचीन परम्परा रही है। ५. नौ योजन के मत्स्य (नवजोयणिया मच्छा) यद्यपि लवण समुद्र में पांच सौ योजन के मत्स्य हैं, किन्तु नदियों के मुहानों पर जम्बूद्वीप की जगती का द्वार नी योजन का है, इसलिए उसमें इससे बड़े मत्स्य प्रवेश नहीं कर सकते । क्या यह क्षेत्रगत प्रभाव तो नहीं है ? ६. भौम (भोमा) वृत्तिकार के अनुसार कुछ आचार्य भौम का अर्थ 'नगर' और कुछ 'विशिष्ट स्थान करते हैं।' १. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४२२ : 'नो इत्थिगणाई तीह सूत्रं दृश्यते केवलं ‘नो इत्थिठाणाई' ति सम्भाव्यते उत्तराध्ययनेषु तथाऽधीतत्वात् प्रक्रमानुसारित्वाच्चास्येतीदमेव व्याख्यायते-'नो स्त्रीणां, तिष्ठन्ति येषु तानि स्थानानि निषद्याः स्त्रीस्थानानि तानि सेविता भवति ब्रह्मचारी, कोऽर्थः ? स्त्रीभिः सहकासने नोपविशेद्, उत्थितास्वपि हि तासु मूहूर्त नोपविशेदिति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र १६: कुशलानुष्ठानं ब्रह्मचर्य तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ब्रह्मचर्याणि तानि चाचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानीति । ३. समवायो ५१/१: नवण्हं बंभचेराणं............। -वृत्ति पत्र ६७ : बंभचेराण-प्राचारप्रथमथुतस्कंधाध्ययनाना'" । ४. समवायांगवृत्ति, पत्र ६७ । ५. समवायांगवृत्ति, पत्र १६ : लवणसमुद्रे यद्यपि पञ्चयोजनशतिका मत्स्याः संभवन्ति, तथापि नदीमुखेषु जगतीरन्ध्रौचित्येनैतावतामेव प्रवेश इति, लोकानुभावो वाऽयमिति ६. समवायांगवृत्ति, पत्र १६ ॥ भौमानि-नगराणीत्येके वशिष्टस्थानानीत्यन्ये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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