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________________ समवायो ४२ समवाय ६ : सू० १८-२० १८.ते णं देवा नवण्हं अद्धमासाणं ते देवा नवानामर्द्धमासानां आनन्ति वा १८. वे देव नौ पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति वा निःश्व- उच्छवास और निःश्वास लेते हैं। ऊससंति वा नीससंति वा। सन्ति वा। १९. तेसि णं देवाणं नहिं वास. तेषां देवानां नवभिर्वर्षसहाराहारार्थः १६. उन देवों के नौ हजार वर्षों से भोजन सहस्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ। समुत्पद्यते । करने की इच्छा उत्पन्न होती है। २०. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये २०. कुछ भव-सिद्धिक जीव नौ बार जन्म नहि भवग्गहहि सिन्झिस्संति नवभिर्भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति भोत्स्यन्ते ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और बुझिस्संति मुच्चिस्संति परि- मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति सर्वदुःखाना- परिनिर्वत होंगे तथा सर्व दुःखों का निव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं मन्तं करिष्यन्ति । अन्त करेंगे। करिस्संति । टिप्पण १. सूत्र १.२ प्रस्तुत दो आलापकों में ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों तथा नौ अगुप्तियों का उल्लेख है । स्थानांग ६/३,४ में भी नौ गुप्तियों तथा नौ अगुप्तियों का उल्लेख हुआ है । दोनों में भाषागत और भावगत ऐक्य है। आवश्यक सूत्र में "नवहिं बंभचेर गुत्तीहि" की वृत्ति करते हुए आचार्य हरिभद्र ने ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों का एक प्राचीन गाथा के आधार पर निम्न प्रकार से उल्लेख किया है "वसहिकह निसिज्जि दिय कुडडुतरपुव्वकीलियपणीए । अइमायाहारविभूसणा य नव बंभगुत्तीओ ॥" १. ब्रह्मचारी स्त्री-पशु और नपुंसक से संसक्त वसति का सेवन न करे । २. अकेली स्त्रियों में कथा न करे। ३. स्त्रियों की निषद्या (स्थान) का सेवन न करे। स्त्रियों के चले जाने पर (तत्काल) उस स्थान पर न बैठे। ४. स्त्रियों की इन्द्रियों को आसक्तदृष्टि से न देखे । ५. भीत आदि के छिद्रों से मैथुन-संसक्त स्त्रियों की क्वणित-ध्वनि को न सूने । ६. पूर्व अवस्था में आचीर्ण भोगों की स्मृति न करे। ७. प्रणीत [स्निग्ध, गरिष्ठ] भोजन न करे । ८. अतिमात्रा में आहार का उपभोग न करे। ६. विभूषा न करे। इनमें तथा समवायांग और स्थानांग में प्रतिवादित नौ गुप्तियों में अन्तर है। २. वह स्त्रियों के स्थानों का सेवन नहीं करता (नो इत्थीणं ठाणाई सेवित्ता भवइ) टीकाकार अभयदेव सूरी ने समवायांग की वृत्ति में 'नो इत्थीणं गणाई सेवित्ता भवई'-पाठ माना है। उसका अर्थ है-ब्रह्मचारी स्त्री-समुदाय का उपासक न हो। स्थानांग की वृत्ति के अनुसार उन्होंने उत्तराध्ययन के आधार पर 'इत्थिगणाई' के स्थान पर 'इत्थिठाणाई' पाठ स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है-कहीं-कहीं 'इत्थिगणाई' पाठ भी उपलब्ध होता है, किन्तु यहां 'इथिठाणाई' पाठ अधिक उपयुक्त लगता है। उत्तराध्ययन में भी यही पाठ उपलब्ध है। उन्होंने इसका अर्थ---'स्त्रियां जहां बैठती हैं वैसे स्थान' १. आवश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ १०४ । २ समवायांगवृत्ति, पत्र १५: Diremairat mirar malis. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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