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________________ समवानो ३२७ प्रकोणक समवाय : सू० ६७ अणुत्तरोववाइयदसासु णं अनृत्तरोपपातिकदशासु अनुत्तरोपपातिअणुत्तरोववाइयाणं नगराई कानां नगराणि उद्यानानि चैत्यानि उज्जाणाई चेइयाई वणसंडाई वनखण्डानि राजानः अम्बापितरौ रायाणो अम्मापियरो समवसरणानि धर्माचार्याः धर्मकथा: समोसरणाई धम्मायरिया ऐहलौकिक-पारलौकिकाः ऋद्धिविणेषाः धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया भोगपरित्यागाः प्रवज्या: श्रतपरिग्रहा: इडिढविसेसा भोगपरिच्चाया तप-उपधानानि पर्यायाः संलेखना: पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा भक्तप्रत्याख्यानानि प्रायोपगमनानि तवोवहाणाई परियागा सालेहणाओ अनुत्तरोपपत्तिः सुकुलप्रत्याजातिः । भत्तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई पुनर्बोधिलाभ: अन्तक्रियाश्च अणुत्तरोववत्ति सुकूलपच्चायाती आख्यायन्ते । पुणबोहिलाभो अंतकिरियाओ य आघविजंति। अनुत्तरोपपातिक दशा में अनुत्तर विमानों में उत्पन्न व्यक्तियों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनपंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक और पारलौकिक ऋद्धिविशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतग्रहण, तप-उपधान, दीक्षा-पर्याय, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान और प्रायोपगमन अनशन, अनुत्तर विमान में उत्पत्ति, सुकुल में पुनरागमन, पुनः वोधिलाभ और अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है। अणुत्तरोववातियदसासु णं अनुत्तरोपपातिकदशामु तीर्थकरसमवतित्थकरसमोसरणाई परममंगल- सरणानि परममाङ्गल्यजगद्धितानि जगहियाणि जिणातिसेसा य जिनातिशेषाश्च बहुविशेषाः । बहुविसेसा जिणसीसाणं चेव जिन शिष्याणां चैव श्रमणगणप्रवरसमणगणपवरगंधहत्थीणं गन्धहस्तिनां स्थिरयशसां परीषहसैन्यथिरजसाणं परिसहसेण्ण-रिउ-बल- रिपू-बल-प्रमर्दनानां तपोदिप्त-चारित्रपमद्दणाणं तब-दित्त-चरित्त- ज्ञान - सम्यक्त्वसार - विविधप्रकारगाण-सम्मत्तसार - विविहप्पगार- विस्तर-प्रशस्तगुण-संयुतानां अनगारवित्थर-पसत्थगुण - संजुयाण महर्षीणां अनगारगुणानां वर्णक:, अणगारमहरिसीणं अणगारगणाण उत्तमवरतपो विशिष्टज्ञान-योगयुक्तानां वण्णओ, उत्तमवरतव-विसिटणाण- यथा च जगद्धितं भगवत: यादृशाश्च जोगजुत्ताणं जह य जगहियं ऋद्धिविशेषाः देवासुरमानुषानां भगवओ जारिसा य रिद्धिविसेसा परिषदां प्रादुर्भावाश्च जिनसमीपे, यथा देवासुरमाणुसाणं परिसाणं च उपासते जिनवरं यथा च पाउब्भावा य जिणसमीवं, जह य परिकथयति धर्म लोकगुरुः उवासंति जिणवरं, जह य अमरनरसुरगणानां श्रुत्वा च तस्य परिकहेंति धम्मं लोगगुरू भाषित अवशेषकर्म-विषयविरक्ताः अमरनरसुरगणाणं, सोऊण य नराः यथा अभ्यपयन्ति धर्ममूदारं तस्स भासियं अवसेसकम्म- संयमं तपश्चापि बहुविधप्रकारं, यथा विसयविरत्ता नरा जह अब्भवेति बहूनि वषाणि अनुचर्य आराधित-ज्ञान- धम्ममुरालं संजमं तवं चावि दर्शन-चारित्र-योगा: जिनवचनानुगतबहुविहप्पगारं, जह बहूणि वासाणि अणुचरित्ता आराहियनाण - सण - चरित्त-जोगा इसमें परम मंगल और जगत् के लिए हितकर तीर्थङ्कर के समवसरण, उनके बहुविशिष्ट अतिशय तथा श्रमणगण में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान, स्थिर यश वाले, परीषह सैन्य रूपी रिपु-बल का मर्दन करने वाले, तपोदिप्त चारित्र, ज्ञान और सम्यक्त्व से सफल, विविध प्रकार के विस्तार वाले प्रशस्त गुणों से संयुक्त, जो अगगार महषि हैं, जो उत्तम, श्रेष्ठ तप वाले तथा विशिष्ट ज्ञान-योग से युक्त हैं, उन जिन-शिष्यों के मुनि-गुणों का वर्णन किया गया है। इसमें जैसे भगवान् महावीर का शासन जगत् के लिए हितकर है, देव-असुर और मनुष्य पर्षदों के जिस प्रकार के ऋद्धि-विशेष तथा जिनेश्वर देव के समीप प्रादुर्भाव होता है, जिस प्रकार वे जिनेश्वर की उपासना करते हैं, जिस प्रकार लोकगुरु (महावीर) देव, नर और असुरों के गणों में धर्म-देशना देते हैं, जिस प्रकार भगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म सुन कर अवशेष (क्षीणप्राय) कर्म वाले, विषयों से विरक्त मनुष्य अनेक प्रकार के संयम और तपरूपी उदार धर्म को स्वीकार करते हैं, जिस प्रकार वे अनेक वर्षों तक तप और संयम का पालन कर ज्ञान, दर्शन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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