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________________ समवायो ३२८ प्रकोणक समवाय : सू० ६७ जिणवयणमणुगय - महियभासिया महित-भाषिताः जिनवरान् हृदयेन जिणवराण हियएणमणुणेत्ता, जे अनुनीय, ये च यत्र यावन्ति भक्तानि य जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेदयित्वा, लब्ध्वा च समाधिमुत्तमं छेयइत्ता लभ्रूण य समाहिमुत्तमं ध्यान योगयुक्ताः उपपन्नाः झाणजोगजुत्ता उववण्णा मुनिवरोत्तमाः यथा अनुत्तरेषु मुणिवरोत्तमा जह अणुत्तरेसु प्राप्नुवन्ति यथा अनुत्तरं तत्र । पावंति जह अणुत्तरं तत्थ विषयसौख्यं, ततश्च च्युताः क्रमेण । विसयसोक्खं, तत्तो य चुया कमेणं करिष्यन्ति संयताः यथा च काहिति संजया जह य अन्तक्रियाम् । अंतकिरियं। चारित्र और योग की आराधना करते हैं, आचार आदि से अनुगत और पूजित जिनवचन का निरूपण कर जिनेश्वर को हृदय में प्राप्त कर जो जहां जितने भक्तों का छेदन कर, उत्तम समाधि को पाकर, ध्यान-योग से युक्त जिस प्रकार उत्तम मुनिवर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं और जिस प्रकार वहां अनुत्तर विषय सुखों को पाते हैं, वहां से च्युत होकर, क्रम से संयमी बन कर जिस प्रकार अन्तक्रिया करते हैं-उनका आख्यान किया गया है। एए अण्णे य एवमाइअत्था एते अन्ये च एवमादयः अर्थाः वित्थरण। विस्तरेण। ये तथा इसी प्रकार के अन्य विषय इसमें विस्तार से निरूपित हैं। अनुत्तरोपपातिक दशा की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्येय हैं। अणुत्तरोववाइयवसासु णं परित्ता अनुत्तरोपपातिकदशासु परीताः वायणा संखेज्जा अणुओगदारा वाचना: संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा संख्येयाः प्रतिपत्तयः संख्येयाः वेष्टकाः वेढा संखेज्जा सिलोगा संख्येयाः श्लोकाः संख्येयाः नियुक्तयः संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संख्येयाः संग्रहण्यः । संखेज्जाओ संगहणीओ। से णं अंगट्टयाए नवमे अंगे एगे ताः अङ्गार्थतया नवममङ्गम् एकः । सुयक्खंधे दस अज्झयणा तिण्णि श्रुतस्कन्धः दश अध्ययनानि त्रयो वर्गाः । वग्गा दस उद्देसणकाआ दस दश उद्देशनकालाः दश समूहशनकालाः समुद्देसणकाला संखेज्जाइं संख्येयानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेण, पयसयसहस्साइं पयग्गेणं, संख्येयानि अक्षराणि अनन्ता: गमाः संखेज्जाणि अक्खराणि अणंता अनन्ताः पर्यवाः परीतास्त्रसाः अनन्ताः गमा अणंता पज्जवा परित्ता तसा स्थावरा: शाश्वताः कृता: निबद्धाः अणंता थावरा सासया कडा निकाचिताः जिनप्रज्ञप्ताः भावा: णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते भावा आघविज्जंति पण्णविज्जति दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते उपदर्यन्ते । परूविज्जति दंसिज्जंति निदंसिर्जति उवदंसिज्जंति। यह अंग की दृष्टि से नौवां अंग है। इसके एक श्रुतस्कंध, दस अध्ययन, तीन वर्ग, दस उद्देशन-काल, दस समुद्देशन-काल, पद-प्रमाण से संख्येय लाख पद (छियालीस लाख आठ हजार), संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित बस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत. कृत, निबद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। से एवं आया एवं णाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता विण्णाया एवं चरण-करण- एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते परूवणया आघविज्जति इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा'- अनुत्तरोपपातिकदशामय, 'एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' हो जाता है । इस प्रकार अनुत्तरोपपातिकदशा में चरण-करण-प्ररूपणा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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