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________________ समवानो १४५ समवाय २७ : सू० ५-१४ ५. वेयगसम्मत्तबंधोवरयस्स णं वेदकसम्यक्त्वबन्धोपरतस्य मोहनीयस्य मोहणिज्जस्स कम्मस्स सत्तावीसं कर्मण: सप्तविंशतिः कर्माशा: सत्कर्माणः कम्मंसा संतकम्मा पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः । ५. वेदक सम्यक्त्व-बंध का वियोजन' करने वाले व्यक्ति के मोहनीय कर्म के सत्ताईस कर्माश (उत्तर प्रकृतियां) सत्कर्म (सत्तावस्था में) होते हैं। ६. सावण-सुद्ध-सत्तमीए णं सूरिए श्रावण-शुद्ध-सप्तम्यां सूर्यः सप्तविंशत्यं- ६. श्रावण शुक्ला सप्तमी को सूर्य एक सत्तावीसंगुलियं पोरिसिच्छायं गुलिका पौरुषीच्छायां निर्वयं दिवसक्षेत्र प्रहर की सत्ताईस अंगुल प्रमाण छाया णिवत्तइत्ता णं दिवसखेत्तं निवडढे- निवर्द्धयन रजनीक्षेत्र अभिनिवर्द्धयन निष्पन्न कर दिवस-क्षेत्र को छोटा और माणे रयणिखेतं अभिणिवड्ढेमाणे चारं चरति । रात्रि-क्षेत्र को बड़ा करता हुआ गति चारं चरइ। करता है। ७. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तावीसं एकेषां नैरयिकाणां सप्तविंशति पल्यो- पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। पमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। ७. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है। ८. अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइ. अधःसप्तम्यां पृथिव्यां अस्ति एकेषां याणं नेरइयाणं सत्तावीसं सागरो- नैरयिकाणां सप्तविंशति सागरोपमाणि वमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ८. नीचे की सातवीं पृथ्वी के कुछ नरयिकों की स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है। है. असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं असुरकूमाराणां देवानां अस्ति एकेषां सत्तावीसं पलिओवमाई ठिई सप्तविंशति पल्योपमानि स्थितिः पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। ६. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है। १०. सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइ- सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां १०. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों याणं देवाणं सत्तावीसं पलि- देवानां सप्तविंशति पल्योपमानि स्थितिः की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है। ओवमाइं ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता । १.मभिम - उवरिम - गेवेज्जयाणं मध्यम-उपरितनयिका मध्यम-उपरितन-प्रैवैयकाणां देवानां ११. द्वितीय त्रिक की तृतीय श्रेणी के वेयक नाai देवाणं जहण्णेणं सत्तावीसं जघन्येन सप्तविंशति सागरोपमाणि देवों की जघन्य स्थिति सत्ताईस सागरोसागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। पम की है। १२. जं देवा मज्झिम-मज्झिम गेवेज्जय- ये देवा मध्यम-मध्यम-ग्रेवेयकविमानेष १२. द्वितीय त्रिक की द्वितीय श्रेणी के विमाणेस देवत्ताए उववण्णा, तेसि देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां देवानामुत्कर्षेण वेयक विमानों में देवरूप में उत्पन्न णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तावीसं सप्तविंशति सागरोपमाणि स्थिति: होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। सत्ताईस सागरोपम की है। २३. ते णं देवा सत्तावीसाए अद्धमासाणं ते देवाः सप्तविंशत्या अर्द्धमासैः आनन्ति १३. वे देव सत्ताईस पक्षों से आन, प्राण, आणमंति वा पाणमंति वा वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा उक्छवास और नि:श्वास लेते हैं। ऊसति वा नीससंति वा। निःश्वसन्ति वा। १४. तेसि णं देवाणं सत्तावीसाए तेषां देवानां सप्तविंशत्या वर्षसहस्रैराहा- १४. उन देवों के सत्ताईस हजार वर्षों से वाससहस्सेहि आहारट्ठे रार्थः समुत्पद्यते । भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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