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समवानो
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समवाय ३३ : टिप्पण
८. श्राविकाओं की आशातना। ६. देवताओं की आशातना। १०. देवियों की आशातना। ११. इहलोक की आशातना। १२. परलोक की आशातना । १३. केवलिप्रज्ञप्त धर्म की आशातना। १४. देव, मनुष्य और असुरों की आशातना। १५. सभी प्राण, भूत, जीव और सत्वों की आशातना। १६. काल की आशातना। १७. श्रुत की आशातना। १८. श्रुतदेवता की आशातना। १६. वाचनाचार्य की आशातना। २०. श्रुत की विपर्यस्तता। २१. पदों का मिश्रण करना । २२. अक्षरों की न्यूनता करना। २३. अक्षरों का आधिक्य करना । २४. पदों की न्यूनता करना। २५. विराम रहित पढना या विनयरहित पढना । २६. उच्चारण की अमर्यादा। २७. योगरहितता। २८. योग्य को श्रुत न देना। २६. अयोग्य को श्रुत देना। ३०. अकाल में स्वाध्याय करना। ३१. उपयुक्त काल में स्वाध्याय न करना। ३२. अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करना । ३३. स्वाध्यायिक में स्वाध्याय न करना।
वृत्तिकार हरिभद्रसूरी ने इन तेतीस आशातनाओं की सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की है । देखें-आवश्यक भाग-२, पृष्ठ १५६-१६१ ।
मूलाचार में आशातना शब्द के स्थान पर 'अत्याशना' या 'आशना' शब्द का प्रयोग मिलता है । इसमें तेतीस अत्याशनाएं ये हैं-पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, पांच महाव्रत, आठ प्रवचनमाताएं और नौ तत्त्व-इन तेतीस तत्त्वों
के प्रति अविनय करना 'आशना' है। २. डाक (डायं-डायं)
प्रवचनसारोद्धार के अनुसार 'डाय' का अर्थ बेंगन, ककड़ी, चना, पत्ती आदि का शाक होता है। इसी ग्रंथ में एक दूसरे प्रसंग में 'डाय' का अर्थ मसालों से पकाई हई बथुआ, राई आदि की भाजी किया गया है।'
१. मूलाचार २/५४ : पंचवे पत्थिकाया छज्जीवनिकाय महब्बया पंच ।
पवयणमाउ पयत्था, तेतीससच्चासणा भणिया ।। २. प्रवचनसारोद्धार, पृ० ३३ :
डाय होइ पुणो पत्तसागंते-वृन्ताकचिर्भटिकाचणकादय सुसंस्कृताः पनशाकान्ता डायशब्देन भण्यन्ते । ३. वही, २५६/१५:
डाप्रो वत्थुलराईम मज्जिया हिंगजीरयाइजुया ।
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