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समवानो
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समवाय ३३ : सू० ११-१४ ११. जे देवा सव्वदृसिद्धं महाविमाणं ये देवाः सर्वार्थसिद्धं महाविमानं ११. सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवरूप में
देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं देवत्वेन उपपन्नाः, तेषां देवानां उत्पन्न होने वाले देवों की सामान्य अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं अजघन्यानुत्कर्षण त्रयस्त्रिंशत् स्थिति (जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से
सागरोवमाइंठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। मुक्त) तेतीस सागरोपम की है। १२. ते णं देवा तेत्तीसाए अद्धमासेहिं ते देवा त्रयस्त्रिशता अर्द्धमासैः आनन्ति १२. वे देव तेतीस पक्षों से आन, प्राण,
आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा प्राणन्ति वा उच्छ्वसन्ति वा उच्छवास और नि:श्वास लेते हैं । वा नोससंति वा।
निःश्वसन्ति वा। १३. तेसि णं देवाणं तेत्तीसाए तेषां देवानां त्रयस्त्रिशता वर्षसहस्र- १३. उन देवों के तेतीस हजार वर्षों से वाससहस्सेहि आहारठे राहारार्थः समुत्पद्यते ।
भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है। समुप्पज्जइ। १४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १४. कुछ भव-सिद्धिक जीव तेतीस बार
तेत्तीसाए भवग्गहहिं सिज्झि- त्रयस्त्रिशता भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और स्संति बुझिस्संति मच्चिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिर्वास्यन्ति परिनिर्वृत होंगे तथा सर्व दुःखों का परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति ।
अन्त करेंगे। करिस्संति।
टिप्पण
१. आशातनाएं तेतीस हैं (तेत्तीसं आसायणाओ)
वत्तिकार ने इसका निरुक्तगत अर्थ इस प्रकार किया है-'आयस्य शातना आशातना-आय का अर्थ है-सम्यग दर्शन आदि की अवाप्ति और शातना का अर्थ है-खंडन, भग। जो आय का नाश करती है, वह आशातना है।
इसका अर्थ आत्मा को दुःखित करना भी हो सकता है।
प्रस्तुत आलापक में तेतीस आशातनाएं बताई गई हैं। वे सारी शैक्ष से संबंधित हैं। इनके निर्देश से शैक्ष को कर्तव्य. बोध करवाया गया है।
आवश्यकवृत्ति में भी ये ही तेतीस आशातनाएं मुख्य रूप से गृहीत हैं । वृत्तिकार हरिभद्रसूरी ने वैकल्पिक रूप में आवश्यक सूत्रान्तर्गत तेतीस आशातनाएं भी मानी हैं'
१. अरहन्तों की आशातना। २. सिद्धों की आशातना। ३. आचार्यों की आशातना । ४. उपाध्यायों की आशातना । ५. साधुओं की आशातना। ६. साध्वियों की आशातना।
७. श्रावकों की आशातना। १. समवायांगवृत्ति, पन ५६ :
प्रायः-सम्यग्दर्शनाचवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना-खण्डनं निरुक्तादाशातना। २. पावश्यक, हारिभद्रीयावृत्ति, भाग २, पृष्ठ १५८ : अथवा अयमन्य: प्रकारः, प्रहंतो तीर्थकृतामाशातना मादिशब्दात् सिद्धादिग्रहः यावत् स्वाध्याये किञ्चिन्नाधोतं सम्झाए ण सज्झाइयंति बुलं पता
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