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________________ समवानो १७८ समवाय ३३ : सू०२-१० २. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य चमरचंचाए रायहाणीए एक्कमेक्के चमरचञ्चायां राजधान्यां एकैकस्मिन वारे तेत्तीसं-तेत्तीसं भोमा द्वारे त्रयस्त्रिशत्-त्रयस्त्रिंशत् भौमानि पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि। २. असुरेन्द्र असुरराज चमर की राजधानी चमरचंचा के प्रत्येक के द्वार पर तेतीसतेतीस भौम (उपनगर, विशेषस्थान) ३. महाविदेहे णं वासे तेत्तीसं महाविदेहः वर्षः त्रयस्त्रिशद् योजन- ३. महाविदेह क्षेत्र का विष्कंभ तेतीस हजार जोयणसहस्साइं साइरेगाई शतानि सातिरेकाणि विष्कम्भेण योजन से कुछ अधिक है। विक्खंभेणं पण्णत्ते। प्रज्ञप्तः । ४. जया णं सूरिए बाहिराणं अंतरं यदा सूर्यः बाह्यानामन्तरं तृतीयं मण्डलं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं उपसंक्रम्य चारं चरति, तदा इहगतस्य चरइ, तया णं इहगयस्स पुरिसस्स पुरुषस्य त्रयस्त्रिशता योजनसहस्रः तेत्तीसाए जोयणसहस्सेहि किंचि- किंचिद्विशेषोनैः चक्षुःस्पर्श अर्वाग् विसेसूर्णेहि चक्खुप्फास हव्व- आगच्छति । मागच्छइ। ४. जब सूर्य सर्व-बाह्य-मंडल से अन्तर्वर्ती तीसरे मंडल में गति करता है तब भरतक्षेत्र में रहे हुए मनुष्य को वह कुछ विशेष न्यून तेतीस हजार योजन की दुरी से दिखाई देता है। ५. इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां अस्ति एकेषां ५. इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेत्तीस नैरयिकाणां त्रयस्त्रिशत पल्योपमानि की स्थिति तेतीस पल्योपम की है। पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। ६. अहेसत्तमाए पुढवीए काल-महा- अधःसप्तम्यां पृथिव्यां काल-महाकाल- ६. नीचे की सातवीं पृथ्वी के काल, काल-रोरुय-महारोरुएसु नेरइयाण रौरुक (त)-महारौरुकेष नैरयिकाणां महाकाल, रोरुक और महारोरुकउक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई उत्कर्षेण त्रयस्त्रिशत सागरोपमाणि इन चार नरकावासों के नैरयिकों की ठिई पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की नेरइयाणं अप्रतिष्ठाननरके नैरयिकाणां अजघन्या- अजहण्णमणुक्कोसेणं तेतीसं नुत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि सागरोवमाइंठिई पण्णत्ता। स्थिति: प्रज्ञप्ता। ७. अप्रतिष्ठान-नरक' के नैरयिकों की सामान्य स्थिति (जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से मुक्त) तेतीस सागरोपम की ८. असुरकुमाराणं अत्थेगइयाणं देवाणं असुरकुमाराणां अस्ति एकेषां देवानां तेत्तीसं पलिओवमाइं ठिई त्रयस्त्रिशत् पल्योपमानि स्थितिः पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। ८. कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति तेतीस पल्योपम की है। ६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं सौधर्मेशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां ६. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों देवाणं तेत्तीसं पलिओवमाई ठिई देवानां त्रयस्त्रिंशत् पल्योपमानि की स्थिति तेतीस पल्योपम की है। पण्णत्ता। स्थितिः प्रज्ञप्ता। १०. विजय-वेजयंत जयंत-अपराजिएसु विजय - वैजयन्त - जयन्त· अपराजितेषु १०. विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपरा विमाणेसु उक्कोसेणं तेतीसं विमानेष उत्कर्षण त्रयस्त्रिशत् जित विमानों में (देवों की) उत्कृष्ट सागरोवमाइंठिई पण्णत्ता। सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। स्थिति तेतीस सागरोपम की है। For Private & Personal use only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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