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________________ समवायो ३२२ प्रकीर्णक समवाय : सू० ६४ सुरभवण - विमाण - सुक्खाइं सुरभवन-विमान-सौख्यानि अनुपमानि अणोवमाइं भुत्तूण चिरं च भुक्त्वा चिरं च भोगभोगान् तान् भोगभोगाणि ताणि दिव्वाणि दिव्यान् महार्हान् ततश्च । महरिहाणि ततो य कालक्कम- कालक्रमच्युतानां, यथा च पुनर्लब्धच्चुयाणं जह य पुणो सिद्धिमार्गाणां अन्तक्रिया । लद्धसिद्धिमग्गाणं अंतकिरिया। के मार्ग के अभिमुख हैं, जो अनुपम देव-भवन के वैमानिक सुखों को प्राप्त करते हैं, जो चिरकाल तक दिव्य और महामहनीय भोगों को भोग कर तथा कालक्रम से वहां से च्युत होकर, जिस प्रकार वे पुन: सिद्धिमार्ग को प्राप्त कर अंतक्रिया करते हैं-उनका आख्यान किया गया है। चलियाण य सदेव-माणुस्स- चलितानां च सदेव-मानुष धीरकरणधीरकरण-कारणाणि बोधण- कारणानि बोधन-अनुशासनानि गुणअणुसासणाणि गुण-दोस- दोष-दर्शनानि । दरिसणाणि। इसमें संयम-मार्ग से विचलित मुनियों में धैर्य उत्पन्न करने वाले, बोध और अनुशासन भरने वाले तथा गुण और दोष का संदर्शन देने वाले देव तथा मनुष्य सम्बन्धी दृष्टान्तों का निरूपण दिद्रुते पच्चए य सोऊण दृष्टान्तान् प्रत्ययाँश्च श्रुत्वा लोकमुनयः लोगमणिणो जह य ठिया यथा च स्थिता: शासने जरा-मरणसासणम्मि जर-मरण-नासणकरे। नाशनकरे । आराहिय - संजमा य आराधित-संयमाश्च सुरलोकसुरलोगपडिनियत्ता ओति प्रतिनिवत्ता: उपयान्ति यथा शाश्वतं जह सासयं सिवं सव्वदुक्खमोक्खं । शिवं सर्वदुःखमोक्षम् । इसमें दृष्टान्तों और प्रत्ययों (बोधि के हेतुभूत वाक्यों) को सुन कर लौकिक मुनि (शुक्र परिव्राजक आदि) जिस प्रकार से जरा-मरण का नाश करने वाले जिनशासन में स्थित हुए, संयम की आराधना कर देवलोक में उत्पन्न हुए, पुनः वहां से मनुष्य जन्म प्राप्त कर जिस प्रकार शाश्वत, शिव और सब दुःखों से मुक्ति देने वाले निर्वाण को प्राप्त करते हैं उसका आख्यान किया गया है। एए अण्णे वित्थरेण य। य एवमादित्य एते अन्ये च एवमादय: अत्र विस्तरेण ये तथा इसी प्रकार के अन्य विषय इसमें विस्तार से निरूपित हैं। च । ज्ञात-धर्मकथा की वाचनाएं परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्येय हैं, प्रतिपत्तियां संख्येय हैं, वेढा संख्येय हैं, श्लोक संख्येय हैं, नियुक्तियां संख्येय हैं और संग्रहणियां संख्येय हैं। नाया-धम्मकहासु णं परित्ता ज्ञात-धर्मकथासु परीताः वाचना: वायणा सखेज्जा अणुओगदारा संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि संख्येया: संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा प्रतिपत्तय: संख्येया: वेष्टका: संख्येयाः वेढा संखेज्जा सिलोगा खेज्जाओ श्लोकाः संख्येयाः निर्यक्तयः संख्येयाः निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संग्रहण्यः । सांगहणीओ। से णं अंगट्टयाए छठे अंगे दो ताः अङ्गार्थतया षष्टमङ्गं द्वौ सुअक्खंधा एगणतीसं अज्झयणा, श्रुतस्कन्धौ एकोनत्रिंशद अध्ययनानि, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तानि समासत: द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तं जहा--चरिता य कप्पिया य। तद्यथा-चरितानि च कल्पितानि च । यह अंग की दृष्टि से छठा अंग है। इसके दो श्रतस्कंध और उनतीस अध्ययन५ हैं। संक्षेप में वे दो प्रकार के हैं-चरित (घटित) और कल्पित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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