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________________ समवाश्र ३२१ ४. से कि तं नायाधम्मक हाओ ? अथ कास्ता ज्ञात-धर्मकथा: ? नाया धम्मक हासु णं नायाणं ज्ञात-धर्मकथासु ज्ञातानां नगराणि नगराई उज्जाणाई चेइआई उद्यानानि चैत्यानि वनषण्डानि राजानः ariडाई रायाणो अम्मापियरो अम्बापितरौ समवसरणानि धर्माचार्याः समोसरणाइं धम्मायरिया धर्मकथा: ऐहलौकिक - पारलौकिकाः धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया ऋद्धिविशेषाः भोगपरित्यागाः प्रव्रज्याः इडिविसेसा भोगपरिच्चाया श्रुतपरिग्रहाः तपउपधानानि पर्यायाः पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा संलेखना: तोवहाणाई परियागा संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुल पच्चायातो पुणबोहिलाभो अंत किरियाओ य आघविज्जंति पण्णविज्जति परुविज्जति दंसिज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति । - प्रव्रजितानां नाया धम्महासु णं पव्वइयाणं ज्ञात-धर्मकथासु विणयकरण जिणसामि विनयकरण जिनस्वामि शासनवरे सासणवरे संजमपइण्ण- पालण संयमप्रतिज्ञा पालन धृति मतिबिइ-मइ - ववसाय - दुल्लभाणं, तव व्यवसाय दुर्लभानां तपोनियमनियम - तवो वहाण - रणदुद्धरभर तपउपधान- रण- दुर्घरभरभग्न- निःसहभग्गा - णिसहा णिसट्टा, निःसृष्टानां घोरपरीषह - पराजिताऽसहघोरपरीसह पराजिया -सह- प्रारब्ध-रुद्ध - सिद्धालयमार्ग-निर्गतानां, आशावदोषपारद्ध रुद्ध - सिद्धालयमग्ग- विषयसुख - तुच्छ निग्गयाणं, विसयसुह तुच्छ मूच्छितानां विराधित-चारित्र-ज्ञानआसावसदसमुच्छियाणं, विरा हिय चरित नाण दंसणजइगुण- विविहप्पगार निस्सारसुण्णयाणं संसार-अपार- दुक्ख दुग्गइ-भव - विविहपरंपरा पवंचा । दर्शन-तिगुण- विविध प्रकार-नि:सारशून्यकानां संसार-अपार-दुःख-दुर्गतिभव - विविध परम्परा -प्रपञ्चाः । - - Jain Education International - - धीराण य जिय-परिसह कसायसेण्ण धिइ धणिय संजम - उच्छाहनिच्छियाणं आराहियनाण- दंसण-चरित-जोग - निस्सल्ल - सुद्ध सिद्धालयमग्गमभिमुहाणं - प्रायोपगमनानि सुकुल प्रत्याजातिः अन्तक्रियाश्च आख्यायन्ते प्रज्ञा प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते । भक्तप्रत्याख्यानानि देवलोकगमनानि पुनर्बोधिलाभ: - - - निदश्यन्ते - धीराणां च जित - परीषह - कषाय- सैन्य - धृति-धनिक- संयम - उत्साहनिश्चितानां आराधित ज्ञान दर्शन - चारित्र-योगनिःशल्य-शुद्ध- सिद्धालयमार्गाभिमुखानां - For Private & Personal Use Only प्रकीर्णक समवाय: सू० ६४ ४. ज्ञात-धर्मकथा क्या है ? ज्ञात-धर्मकथा में ज्ञातों (दृष्टान्तभूत व्यक्तियों) के नगर, उद्यान. चैत्य, वनषंड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, लौकिक ओर पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोगपरित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत-ग्रहण, तपउपधान, दीक्षा- पर्याय का काल, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान और प्रायोपगमन अनशन, देवलोकगमन, सुकुल में पुनरागमन, पुनः बोधिलाभ, और अन्तक्रिया का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। इसमें कर्म को दूर करने वाले जिनेश्वर देव के उत्तम शासन में प्रव्रजित होने पर भी जो संयम की प्रतिज्ञा के पालन में दुर्लभ धृति, मति और व्यवसाय वाले हैं, जो तप, नियम, तप उपधान रूपी संग्राम में दुर्धर भार से भग्न, निरन्तर असक्त और मुक्ताङ्ग (जुआ डाल देने वाले) हैं, जो घोर परीषहों से पराजित, सदनुष्ठान के प्रारम्भ में असमर्थ, पथ-रुद्ध होने के कारण मोक्षमार्ग से निर्गत हैं, जो विषय सुखों की तुच्छ आशा के वशवर्ती होकर दोषों में मूच्छित हैं, जो चारित्र, ज्ञान और दर्शन के विराधक तथा विविध प्रकार के यति गुणों में निस्सार होने के कारण उनसे शून्य हैं, उन व्यक्तियों के संसार में होने वाले अपार दुःख, दुर्गति तथा जन्म की विविध परम्परा के प्रपञ्च का आख्यान किया गया है। इसमें धीर पुरुषों का जिन्होंने परीषह और कषायरूपी सेना को जीत लिया है, जो धृति के धनी हैं, जिनका संयम में निश्चित उत्साह है, जिन्होंने ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा योग की आराधना की. है, जो निःशल्य और शुद्ध सिद्धालय www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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