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________________ समवायो समवाय १४ : टिप्पण ४. अविरत सम्यगदृष्टि : जिसकी दृष्टि सम्यग होती है किन्तु जिसे व्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती, उसे अविरत सम्यग्दष्टि कहा जाता है। षट्खंडागम में इसका नाम 'असंयत सम्यग्दृष्टि' भी मिलता है।' आत्म-विकास की तीन उपलब्धियां हैं-दर्शन, ज्ञान और चारित्र । प्रस्तुत भूमिका में दर्शन सम्यक हो जाता है, ज्ञान भी सम्यक् हो जाता है, किन्तु उसका पर्याप्त विकास इसमें नहीं होता। चरित्र का विकास इसकी अगली भूमिका से प्रारम्भ होता है। इस भूमिका में वर्तमान जीव इन्द्रिय-विषयों तथा हिंसा से विरत नहीं होता, किन्तु उसका दृष्टिकोण समीचीन हो जाता है। 1. विरताविरत : जो जीव इन्द्रिय-विषय और हिंसा से एक सीमा तक विरत होता है, उसे विरताविरत कहा जाता है। षट्खंडागम में इसे 'संयतासंयत कहा गया हैं।' गोम्मटसार के अनुसार विरताविरत जीव त्रस जीवों की हिंसा से विरत हो जाता है, किन्तु स्थावर जीवों की हिंसा से विरत नहीं होता। स्थावर जीवों की अनावश्यक हिंसा से विरत हो जाता है, किन्तु उनकी आवश्यक हिंसा से विरत नहीं हो पाता।' ६ प्रमत्त संयत : जो सर्वविरत होने पर भी प्रमादवान् होता है उसे 'प्रमत्तसंयत कहा जाता है। प्रमाद के पांच प्रकार मिलते हैं(१) मद, (२) विषय, (३) कषाय, (४) निद्रा और (५) विकथा । नेमिचन्द्र सूरि ने प्रमाद के १५ प्रकार बतलाए हैंचार विकथा-स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और राजकथा। चार कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ । पांच इन्द्रिय-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र तथा निद्रा और प्रणय । आचार्य भिक्षु के अनुसार प्रमत्तसंयत जीवस्थान का संबंध उक्त प्रमादों से नहीं है। उसका संबंध प्रमाद आस्रव से है । क्रम-विकास की दृष्टि से यह उपयुक्त भी है। चतुर्थ भूमिका में सम्यक्दर्शन होने पर भी व्रत नहीं होता। पंचम भूमिका में आंशिक विरति होती है, किन्तु सर्वविरति नहीं होती। छठी भूमिका में सर्वविरति होती है, किन्तु प्रमाद आस्रव विलीन नहीं होता । प्रस्तुत भूमिका में प्रमाद आस्रव निरंतर रहता है। ७. प्रत्रमत्त संयत : इस भूमिका में प्रमाद का विलय हो जाता है। इस भूमिका से लेकर अगली सब भूमिकाओं में मुनि अपने स्वरूप के प्रति अप्रमत्त रहते हैं। १. षट्खंडागम, १/१/१२ : मसंजदसम्माइट्ठी। २. गोम्मटसार, गा० २६: गो इन्दियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि। जो सद्दहहि जिणत्तं, सम्माइट्ठी अविरदो सो॥ ३. षट्खडागम, १/१/१३ । संजदासजदा। ४. गोम्मटसार, गा.३१: जो तसवहाउविरदो, अविरदो तहय थावरवहादो। एक समयम्हि जीबो, विरदाविरदो जिणेक्कमई॥ ५. वही. गा० ३४: विकहा तहा कसाया, इंदियणिद्दा तहेव पणयो य । चदु चदु पणमेगेग, होति पमादा हु पण्णरस ।। ६. नवपदार्थ, ५/१/६८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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