SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवाश्रो ८. निवृत्तिबादर ६. निवृत्तिबाद इन दोनों जीवस्थानों में दसवें जीवस्थान की अपेक्षा बादर (स्थूल) कषाय उदय में आता है। दसवें स्थान से पहले वह सूक्ष्म नहीं होता। यहां निवृत्ति का अर्थ 'भेद" और अनिवृत्ति का अर्थ 'अभेद' है। ८२ निवृत्तिबादर जीवस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। उसके असंख्य समय होते हैं । इसमें भिन्न समयवर्ती जीवों की परिणाम विशुद्धि सदृश नहीं होती। एक समयवर्ती जीवों की परिणाम विशुद्धि सदृश और विसदृश - दोनों प्रकार की हो सकती है । इसलिए यह विसदृश परिणाम विशुद्धि का जीवस्थान है । अनिवृत्तिबादर जीवस्थान के एक समयवर्ती जीवों की परिणाम - विशुद्धि सदृश होती है। विशुद्धि का जीवस्थान है । पूर्ववर्ती जीवस्थान की अपेक्षा उत्तरवर्ती जीवस्थान में कषाय के अंश कषाय के अंश कम होते हैं, वैसे-वैसे परिणाम की विशुद्धि बढ़ती जाती है। आठवें जीवस्थान में परिणाम - विशुद्धि की भिन्नता इसलिए यह सदृश परिणामकम होते हैं । जैसे-जैसे होती है, किन्तु नौवें में विशुद्धि की मात्रा बढ़ने के कारण वह नहीं होती । निवृत्तिवादर को अपूर्वकरण भी कहा जाता है। इस जीवस्थान में अपूर्व विशुद्धि - पूर्व जीवस्थानों में अप्राप्त परिणाम- विशुद्धि प्राप्त होती है। इसलिए इसका नाम अपूर्वकरण है।' आठवें जीवस्थान से दो श्रेणियां होती हैं - ( १ ) उपशमश्रेणी और ( २ ) क्षपकश्रेणी । उपशमश्रेणी प्रतिपन्न जीव कषाय को उपशान्त करता हुआ, ग्यारहवीं भूमिका ( उपशान्त मोह) तक पहुंच कर फिर निचली भूमिकाओं में लौट है | क्षपकश्रेणी प्रतिपन्न जीव कषाय को क्षीण करता हुआ, दसवीं भूमिका से सीधा बारहवीं भूमिका में चला जाता है । १०. सूक्ष्मसंपराय : इस जीवस्थान में 'संपराय' ( कषाय) का उदय सूक्ष्म हो जाता है। केवल लोभ कषाय का सूक्ष्मांश उदय में रहता है । ११. उपशान्तमोह : इस भूमिका में मोह सर्वथा उपशान्त हो जाता है । इसलिए प्रस्तुत भूमिका में वर्तमान जीव 'उपशान्त मोह वीतराग' कहलाता है । १२. क्षीणमोह : इस भूमिका में मोह सर्वथा क्षीण हो जाता है । इसलिए प्रस्तुत भूमिका में वर्तमान जीव 'क्षीण मोह वीतराग' कहलाता है । गोम्मटसार में उक्त दोनों जीवस्थानों के लिए 'उपशान्त कषाय' और 'क्षीण कषाय' का प्रयोग मिलता है ।' समवाय १४ : टिप्पण १३. सयोगी केवली : चार घात्यकर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय) के क्षीण होने पर भी जिसके शरीर आदि की प्रवृत्ति शेष रहती है, उसे सयोगी केवली कहा जाता है । (ख) गोम्मटसार, गा० ५२ : भिन्नसमय हिदु जीवेहि ण होहि सम्वदा सरिसो । करणेहि एक्कसमय द्वियेहि सरिसो विसरिसो वा ॥ ३. षट्खंडागम, प्रथम भाग, धबलावृत्ति, पृ० १८३, १८४ ॥ ४. गोम्मटसार, गा० ५० । १. षट्खंडागम, प्रथम भाग, धबलावृत्ति, पृ० १८३ : निर्भेदेन वृत्तिः निवृत्ति: । २. (क) समवायागवृत्ति, पत्र २६ : निवृत्ति : यद्गुणस्थानकं समकालप्रतिपन्नानां जीवानामध्यवसायभेद: तत्प्रधानोबादरी — बादरसम्परायो निवृत्तिबादरः । ५. वही, गा० ५१ । ६. वही, गा० ६१ ६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy