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________________ समवानो समवाय १४ : टिप्पण १४. अयोगी केवली : जिसके शरीर आदि की प्रवृत्ति का भी निरोध हो जाता है, उसे 'अयोगी केवली' कहा जाता है। षटखंडागम में उक्त दोनों जीवस्थानों के नाम 'सयोगकेवली' और 'अयोगकेवली' भी मिलते हैं।' ५. चातुरंग चक्रवर्ती के चौदह रत्न (चाउरंतचक्कवट्टिस्स्स चउद्दस रयणा) रत्न का अर्थ है- अपनी-अपनी जाति की सर्वोत्कृष्ट वस्तुएं- "रत्नं निगद्यते तज्जाती जातौ यदुत्कृष्ट मिति ।" चार अन्तवाली भूमि के स्वामी को चातुरंत चक्रवर्ती कहते हैं।' प्रस्तुत आलापक में चक्रवर्ती के चौदह रत्नों का उल्लेख है। यह उल्लेख अन्यान्य आगम ग्रन्थों तथा व्याख्या साहित्य में विस्तार से उपलब्ध होता है। स्थानांग के दो आलापकों (७/६७-६८) में चक्रवर्ती के इन रत्नों का उल्लेख है। वहां आगमकार ने इनको दो भागों में विभक्त किया है-एकेन्द्रिय रत्न और पंचेन्द्रिय रत्न । सात एकेन्द्रिय रत्न हैं और सात पंचेन्द्रिय रत्न हैं । प्रस्तुत सूत्र में उनका समवेत उल्लेख है। प्रथम सात पंचेन्द्रिय रत्न हैं और शेष सात एकेन्द्रिय रत्न हैं। 'असि' आदि सात रत्न पृथ्वीकाय के जीवों से निष्पन्न होते हैं, इसलिए इन्हें एकेन्द्रिय रत्न माना है। इन चौदह रत्नों की विशेष जानकारी के लिए देखें-ठाणं ७/६७,६८, टिप्पण पृ० ७६६, ७६७ । बौद्ध साहित्य में चक्रवर्ती के सात रत्नों का उल्लेख है १. चक्ररत्न-यह रत्न समस्त आकार से परिपूर्ण, हजार अरों वाला, सनेमिक और सनाभिक होता है। इस रत्न की उत्पत्ति हो जाने पर वह मूर्धाभिषिक्त राजा (चक्रवर्ती) कहता है-'पवत्ततु भवं चक्करतनं, अभिविजिनातु भवं चक्करतनं' ति। तब चक्ररत्न चारों दिशाओं में प्रवर्तित होता है। जहां वह चक्ररत्न प्रतिष्ठित होता है, वहीं चक्रवर्ती राजा अपनी चतरंगिनी सेना के साथ पड़ाव डालता है। उस दिशा के सभी राजा चक्रवर्ती के पास आकर उसका अनुशासन स्वीकार कर लेते हैं। इसी प्रकार चारों दिशाओ में वह चक्ररत्न प्रवर्तित होता है और सभी राजा चक्रवर्ती के अनुगामी बन जाते हैं। इस प्रकार चक्ररत्न समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर विजय पाकर, पुनः राजधानी में लौट आता है। वह चक्रवर्ती के अन्तःपुर के द्वार के मध्य स्थित हो जाता है। २. हस्तिरत्न- श्वेत वर्ण वाला, सात हाथ ऊंचा, ऋद्धिमान् 'उपोसथ' नामका हस्तिरत्न उत्पन्न होता है। चक्रवर्ती पूर्वान्ह में उस पर आरूढ होकर समुद्रपर्यन्त परिभ्रमण कर, राजधानी में आकर प्रातरास लेता है । यह उसकी शीघ्रगामिता का निदर्शन है। ३. अश्वरत्न-यह पूर्ण श्वेत और सुन्दर होता है। इसका नाम 'बलाहक' होता है। यह भी वायु की तरह शीघ्र गति वाला होता है। पूर्वाह्न में चक्रवर्ती इस पर आरूढ होकर समुद्रपर्यन्त भूमि का परिभ्रमण कर राजधानी में आकर कलेवा कर लेता है। ४. मणिरत्न-यह शुभ और गतिमान वैडूर्य मणि आठ कोणों वाला तथा सुपरिमित होता है। चक्रवर्ती राजा इस मणिरत्न को ध्वजा के अग्रभाग में आरोपित कर चतुरंगिनी सेना के साथ घोर अंधकारमय रात्रि में प्रयाण करता है। यह मणि इतना प्रकाश फैलाता है कि लोगों को रात में दिन का भ्रम हो जाता है । ५. स्त्रीरत्न-चक्रवर्ती के स्त्रीरत्न की उत्पत्ति होती है। वह स्त्री अत्यन्त सुन्दर, दर्शनीय, प्रासादिक, सुन्दर वर्ण वाली, न अति दीर्घ, न अति ह्रस्व, न अति कृश, न अति स्थूल, न अत्यन्त कृष्ण वर्णवाली, न अत्यन्त श्वेत वर्णवाली, मनुष्यों के वर्ण से अतिक्रान्त दिव्य वर्ण से संयुक्त होती है। उसका स्पर्श तूल और कपास के स्पर्श की तरह अत्यन्त मृदु होता है। उस स्त्रीरत्न का शरीर शीतकाल में ऊष्ण और ग्रीष्मकाल में शीतल होता है। उसकी काया से चंदन की गंध फुटती रहती है। उसके मुंह से उत्पल की गंध आती है। वह स्त्रीरत्न चक्रवर्ती के उठने से पूर्व उठती है, सोने के पश्चात् सोती है। वह १. (क) षट्खंडागम, १/१/२१ : सजोगकेवली । (ख) वही, १/१/२२ : प्रजोगकेवली। २. समवायांगवृत्ति, पत्र २७ : रत्नानिस्वजातीयमध्ये समुत्कर्षवन्ति वस्तुनीति । ३. वही, पन २७ : चत्वारोऽन्ता-विभागा यस्यां सा चतुरन्ता भूमिः तन्त्र भवः स्वामितयेति चातुरन्त: स चासो चक्रवर्ती चेति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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