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समवायो
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समवाय १४ : टिप्पण
मन के अनुकूल वर्तने वाली तथा प्रियवादिनी होती है। वह मन से भी चक्रवर्ती का अतिक्रमण नहीं करती तो फिर काया से अतिक्रमण करने की बात ही प्राप्त नहीं होती।
५. गृहपतिरत्न-गृहपति के कर्म-विपाकज दिव्यचक्षु प्रादुर्भूत होता है। वह चक्रवर्ती की निधियों को, उनके अधिष्ठाताओं के साथ अथवा अधिष्ठाताओं से रहित, उस दिव्यचक्षु से देखता है। चक्रवर्ती उस गृहपतिरल को साथ ले, नाव पर आरूढ हो गंगा के बीच में जाकर कहता है-'गृहपति ! मुझे हिरण्य-सुवर्ण चाहिए।' तब गृहपतिरत्न दोनों हाथों को गंगा के पानी के प्रवाह में डालकर हिरण्य-सुवर्ण से भरे कलश को बाहर निकालकर चक्रवर्ती के सम्मुख रखता है । फिर वह पूछता है-महाराज ! इतना धन पर्याप्त है या और लाऊं !
७. परिनायकरत्न-यह पंडित, व्यक्त, मेधावी और निपुण होता है। यह चक्रवर्ती के समस्त क्रिया-कलापों में परामर्श देता है।
१. मज्झिमनिकाय III, २६/२/१४, पृ० २४२-२४६ [नालंदा संस्करण
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