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________________ समवानो ३३० प्रकीर्णक समवाय : सू० ६६ से णं अंगट्टयाए दसमे अंगे एगे तानि अङ्गार्थतया दशममङ्गम् एकः सुयक्खंधे (पणयालीसं श्रुतस्कन्ध: (पञ्चचत्वारिंशद अज्झयणा? ) पणयालीसं उद्देसण- अध्ययना: ?) पञ्चचत्वारिंशद् काला पणयालीसं समुद्देसणकाला उद्देशनकालाः पञ्चचत्वारिंशद् संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि समुद्देशनकालाः संख्येयानि पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा अणंता पदशतसहस्राणि पदाग्रेण, संख्येयानि गमा अणंता पज्जवा परित्ता तसा अक्षराणि अनन्ताः गमाः अनन्ताः अणंता थावरा सासया कडा पर्यवाः परीतास्त्रसाः अनन्ताः स्थावराः णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता शाश्वताः कृता: निबद्धाः निकाचिताः भावा आघविज्जंति पण्णविज्जति जिनप्रज्ञप्ताः भावाः आख्यायन्ते। परूविज्जति सिज्जति प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते दर्श्यन्ते निदर्श्यन्ते निसिज्जति उवदंसिज्जति । उपदय॑न्ते। यह अंग की दृष्टि से दसवां अंग है। इसके एक श्रुतस्कन्ध (पैतालीस अध्ययन" ?), पैंतालीस उद्देशन-काल, पैतालीस समुद्देशन-काल, पद-प्रमाण से संख्येय लाख पद (बानवे लाख सोलह हजार), संख्येय अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं। इसमें परिमित त्रस जीवों, अनन्त स्थावर जीवों तथा शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भावों का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। से एवं आया एवं णाया एवं अथ एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता विण्णाया एवं चरण-करण- एवं चरण-करण-प्ररूपणा आख्यायते परूवणया आघविज्जति प्रज्ञाप्यते प्ररूप्यते दयते निदर्श्यते पण्णविज्जति परूविज्जति उपदर्श्यते। तदेतानि प्रश्नदसिज्जति निदंसिज्जति व्याकरणानि। उवदंसिज्जति । सेत्तं पण्हावागरणाई। EE. से किं तं विवागसुए? अथ किं तत् विपाकश्रुतम् ? विवागसए णं सुक्कडदुक्कडाणं विपाकश्रुते सुकृतदुष्कृतानां कर्मणां कम्माणं फलविवागे फलविपाकः आख्यायते। आधविज्जति। इसका सम्यक् अध्ययन करने वाला 'एवमात्मा'-प्रश्नव्याकरणमय, ‘एवं ज्ञाता' और 'एवं विज्ञाता' बन जाता है। इस प्रकार प्रश्नव्याकरण में चरणकरण-प्ररूपणा का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । यह है प्रश्नव्याकरण"। ६६. विपाकश्रुत क्या है ? विपाकश्रुत में सुकृत और दुष्कृत कर्मों के फल-विपाक का आख्यान किया गया है। वह संक्षेप में दो प्रकार का हैदुःखविपाक और सुख विपाक । उनमें दस दुःखविपाक हैं और दस सुखविपाक । दुःखविपाक क्या है ? से समासओ दुविहे पण्णत्ते, स समासतः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथातं जहा-दुहविवागे चेव, दुःखविपाकश्चैव सुखविपाकश्चैव । तत्र सुहविवागे चेव । तत्थ णं दह दश दुःखविपाका: दश सुखविपाकाः । दुहविवागाणि वह सुहविवागाणि। से कि तं दुहविवागाणि ? अथ के ते दुःखविपाका:? दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराई दुःखविपाकेषु दुःखविपाकानां नगराणि उज्जाणाई चेइयाई वणसंडाई उद्यानानि चैत्यानि वनषण्डानि राजानः रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई अम्बापितरौ समवसरणानि धर्माचार्या: धम्मायरिया धम्मकहाओ धर्मकथाः नगरगमणानि संसारप्रबन्धः नगरगमणाई संसारपबंधे दुःखपरम्परा च आख्यायते। तदेते दुहपरंपराओ य आघविज्जति। दुःखविपाकाः । सेत्तं दुहविवागाणि। से कि तं सुहविवागाणि? अथ के ते सुखविपाकाः ? दुःखविपाक में दुःखविपाक वाले जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनषंड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, नगर-गमन, संसार का प्रबन्ध और दुःख परम्पराओं का आख्यान किया गया है। वह दुःख विपाक है। सुखविपाक क्या है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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