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________________ समवानो ३३१ प्रकीर्णक समवाय : सू० ६६ सुहविवागेसु सुहविवागाणं नगराई सुखविपाकेषु सुखविपाकानां नगराणि उज्जाणाई चेइयाइं वणसंडाइं उद्यानानि चैत्यानि वनषण्डानि राजानः रायाणो अम्मापियरो अम्बापितरौ समवसरणानि धर्माचार्या: समोसरणाई धम्मायरिया धर्मकथाः ऐहलौकिक-पारलौकिकाः । धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया ऋद्धिविशेषाः भोगपरित्यागा: प्रव्रज्या: इड्डिविसेसा भोगपरिच्चाया श्रुतपरिग्रहाः तपउपधानानि पर्याया: पव्वज्जाओ सयपरिग्गहा संलेखना: भक्तप्रत्याख्यानानि तवोवहाणाई परियागा प्रायोपगमनानि देवलोकगमनानि संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाई सूकूलप्रत्याजाति: पूनर्बोधिलाभः पाओवगमणाई देवलोगरामणा अन्तक्रियाश्च आख्यायन्ते । सुकुलपच्चायाती पुण बोहिलाभो अंतकिरियाओ य आघविज्जति । सुखविपाक में सुखविपाक वाले जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनपंड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहलौकिक और पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतग्रहण, तप-उपधान, दीक्षा-पर्याय, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान और प्रायोपगमन अनशन, देवलोक-गमन, सुकुल में पुनरागमन, पुन: बोधिलाभ और अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है। दुहविवागेसु णं पाणाइवाय- दुःखविपाकेषु प्राणातिपात-अलीकवचनअलियवयण - चोरिक्ककरण- चौर्यकरण - परदारमैथनससङ्गतया परदारमेहुणससंगयाए महतिव्व- महतोकषाय-इन्द्रियप्रमाद-पापप्रयोगकसाय-इंदियप्पमाय - पावप्पओय- अशभाध्यवसानसञ्चितानां कर्मणां असुहझवसाण-संचियाण कम्माण पापकानां पापअनुभाग-फलविपाकाः पावगाणं पावअणुभाग-फलविवागा निरयगति-तिर्यग्योनि - बहुविध-व्यसनणिरयगति-तिरिक्खजोणि-बहुविह- शतपरम्पराप्रबद्धानां मनुजत्वेऽपि वसणसय - परंपरापबद्धाण, आगतानां यथा पापकर्मशेषण पापका मणयत्तेवि आगयाणं जहा भवन्ति फलविपाकाः । पावकम्मसेसेण पावगा होंति फलविवागा। दुःखविपाक में प्रागातिपात, मृपावाद, चौर्यकरण, परदार-मैथुन, परिग्रह के द्वारा महातीव्र कषाय, इन्द्रिय, प्रमाद, पाप-प्रयोग और अशुभ अध्यवसाय के द्वारा संचित पापकर्मों के अशुभ अनुभाग वाले फल विपाक का आख्यान किया गया है। नरकगति और तिर्यञ्च योनि में बहुविध व्यसनशत (सैकड़ों कष्टों) की परम्परा से बद्ध जीवों के मनुष्य जन्म में आ जाने पर भी जिस प्रकार अवशिष्ट कर्मों के फलविपाक अशुभ होते हैं उनका आख्यान किया गया है। वहवसणविणास - नासकण्णोठें- वधवृषणविनाश-नाश- कौंष्ठाङ गुष्ठगुटकरचरणनहच्छेयणजिब्भछेयण- करचरणनखच्छेदन - जिह्वाछेदनअंजण-कडग्गिदाहण - गयचलण- अञ्जन-कटाग्निदाहन-गज- चरणमर्दनमलणफालणउल्लंबण - सूललया- स्फाटन-उल्लम्बन-शूल-लता-लकुटयष्टि लउडलटिभंजण - तउसोसगतत्त- भजन-त्रपु-सोसक-तप्त - तैलकलकलतेल्लकलकलअभिसिंचणकुंभिपाग- अभिसिञ्चन - कुम्भोपाक - कम्पनकंपण - थिरबंधण-वेहवज्झकत्तण- स्थिरबन्धन-वेध-वर्द्धकर्तन-प्रतिभयकर - पतिभयकर - करपलीवणादि- करप्रदीपनादिदारुणानि दुःखानि दारुणाणि दुक्खाणि इसमें वध, वृषण-विनाश (नपुंसककरण), नासिका, कान, होठ, अंगुष्ठ, हाथ, चरण और नखों का छेदन, जीभ का छेदन, लोहे की गर्म शलाका से आंखों का आंजना, कटाग्नि से जलाना, हाथी के पैरों से कुवलना, विदारण करना, ऊंचे लटकाना, शूल, लता, लकड़ी और लाठी से शरीर का भंग करना, उबलते हुए वपु, शीसे और गरम तेल से सींचना, कुंभी में पकाना, ठंडे प्रयोगों से शरीर को प्रकंपित करना, निबिड़ रूप से बांधना, वेधना (शस्त्र से भेदन करना), चमड़ी उधेड़ना, हाथों में भय उत्पन्न करने वाली अग्नि जलाना-आदि अनुपम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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