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टिप्पण
१. पर्युषित हुए (पज्जोसवेइ )
प्राचीन परम्परा के अनुसार वर्षावास में मुनि पचास दिन तक उपयुक्त वसति की गवेषणा के लिए इधर-उधर आ जा सकता है। किन्तु भाद्रव शुक्ला पंचमी के दिन उसे जो स्थान प्राप्त हो उसी में स्थित होना पड़ता है। इसे पर्युषणा कहते हैं । यदि कोई स्थान न मिले तो वृक्ष के नीचे ही उसे स्थित हो जाना चाहिए ।'
२. अबाधाकाल' निषेक- काल ( अबाहूणिया कम्मणिसेगे)
कर्म की स्थिति दो प्रकार की होती है— कर्मत्वापादनात्मक और अनुभवात्मक । जीव जिस क्षण में कर्म पुद्गलों का बंध करता है उसी क्षण से उनमें फलदान की क्षमता उत्पन्न नहीं होती । प्रारम्भ में उनका केवल कर्मात्मक रूप बनता है । इस फलदान रहित स्थिति को 'अबाधाकाल' कहा जाता है। बाधा का अर्थ 'अन्तर' है । कर्म-बन्ध और कर्मोदय के बीच का काल 'अबाधा-काल' है । इसके पूर्ण होने पर कर्म- पुद्गलों का निषेक ( उदय - योग्य रचना) होता है। अबाधा-काल में केवल कर्मत्व का आपादान होता है, अनुभव नहीं होता। इस तथ्य के आधार पर स्थिति के दो रूप बन जाते हैं । मोहनीय कर्म की कर्मात्मक स्थिति सत्तर कोडाकोड सागरोपम की है। उसका अबाधा-काल सात हजार वर्ष का है । इसलिए उसकी अबाधात्मक या निषेकात्मक स्थिति सात हजार वर्ष कम सत्तर कोडाकोड सागरोपम की है।
इस सूत्र की दूसरी अर्थ - परम्परा भी प्राप्त होती है। उसके अनुसार मोहनीय कर्म की अबाधा-काल सहित स्थिति सत्तर कोडाकोड सागर और सात हजार वर्ष की है। उसका निषेक-काल सत्तर कोडाकोड सागर का है। इस स्थिति में उसका सात हजार वर्ष का अबाधा-काल छूट जाता है । '
१. समवायांगवृत्ति, पत्र ७६ :
वर्षाणां चतुर्मास प्रमाणस्य वर्षाकालस्य सविंशतिरावे - विशतिदिवसाधिके मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाशति दिनेष्यतीतेष्वित्यर्थः, सप्तत्यां च रात्रिदिनेषु शेषेषु भाद्रपद शुक्लपञ्चम्यामित्यर्थः वर्षास्वावासो वर्षांवासः - वर्षावस्थानं परिवसति सर्वथा वासं करोति । पञ्चाशति प्राक्तनेषु दिवसेषु तथाविधवसत्यभावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति माद्रपद शुक्लपञ्चम्यां तु वृक्षमूलादावपि निवसतीति हृदयमिति ।
२. समवायांगवृत्ति, पत्र ७७ ।
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