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समवायो
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समवाय ३१ : सू० ६-१४ ६. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं सौधर्मशानयोः कल्पयोरस्ति एकेषां ६. सौधर्म और ईशानकल्प के कुछ देवों
देवाणं इक्कतीसं पलिओवमाई देवानां एकत्रिशत पल्योपमानि की स्थिति इकतीस पल्योपम की है। ठिई पण्णता।
स्थितिः प्रज्ञप्ता।
मााणार
१०. विजय - वेजयंत - जयंत - अपरा- विजय - वैजयन्त-जयन्त- अपराजितानां १०. विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपरा
जियाणं देवाणं जहण्णणं इक्कतीसं देवानां जघन्येन एकत्रिशत सागरोप- जित देवों की जघन्य स्थिति इकतीस सागरोवमाइंठिई पण्णत्ता। माणि स्थितिः प्रज्ञप्ता।
सागरोपम की है। ११. जे देवा उवरिम-उवरिम- ये देवा उपरितन-उपरितन-वेयक- ११. तृतीय त्रिक की तृतीय श्रेणी के
गेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए विमानेष देवत्वेन अपन्नाः, तेषां ग्रैवेयक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्को- देवानामुत्कर्षण एकत्रिंशत् सागरो- वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति इकतीस सेणं इक्कतीस सागरोवमाई ठिई पमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता।
सागरोपम की है। पण्णत्ता।
१२. ते णं देवा इक्कतोसाए अद्धमासाणं ते देवाः एकत्रिशता अर्द्धमासैः १२. वे देव इकतीस पक्षों से आन, प्राण,
आणमंति वा पाणमंति वा आनन्ति वा प्राणन्ति वा उच्छवसन्ति उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं ।
ऊससंति वा नीससंति वा। वा निःश्वसन्ति वा। १३. तेसि णं देवाणं इक्कतीसाए तेषां देवाना एकत्रिशता वर्षसहस्र- १३. उन देवों के इकतीस हजार वर्षों से वाससहस्सेहि आहारठे राहारार्थः समुत्पद्यते ।
भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती समुप्पज्जइ। १४. संतेगइया भवसिद्धिया जीवा, जे सन्ति एके भवसिद्धिका जीवाः, ये १४. कुछ भव-सिद्धिक जीव इकतीस बार
इक्कतोसाए भवग्गहहिं एकत्रिंशता भवग्रहणैः सेत्स्यन्ति जन्म ग्रहण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सिन्झिस्संति बुझिस्संति भोत्स्यन्ते मोक्ष्यन्ति परिनिवास्यन्ति परिनिर्वत होंगे तथा सर्व दुःखों का मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्ति ।
अन्त करेंगे। सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ।
टिप्पण
१. सिद्ध के आदि-गुण (सिद्धाइगुणा)
आदि-गण का अर्थ है-मुक्त होने के प्रथम क्षण में होने वाला गुण । इनकी उत्पत्ति में क्रम-भावित्व नहीं होता। ये सब युगपद्एकसाथ उत्पन्न होते हैं । ये सहभावी गुण हैं।'
प्रस्तुत आलापक में सिद्धों के इकतीस गुणों का निर्देश है । यह निर्देश दो प्रकार से प्राप्त होता है। प्रस्तुत आगम में निर्दिष्ट इकतीस गुण आठ कर्मों के क्षय के आधार पर संगृहीत हैं
१. ज्ञानावरण कर्म के क्षय से निष्पन्न ५ (१-५) २. दर्शनावरण कर्म के क्षय से निष्पन्न ३. वेदनीय कर्म के क्षय से निष्पन्न ४. मोहनीय कर्म के क्षय से निष्पन्न
(१७-१८) १.मावश्यक, प्रतिक्रमणाध्ययन, पृ० १५१ : सिद्धाणं भादीए गुणा सिद्धादिगुणा, सिद्धेहि सहभाविन इत्यर्थः । ते य अपज्जवसिया ।
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