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समवायो
समवाय ३१ : टिप्पण
५. आयुष्य कर्म के क्षय से निष्पन्न ६. गोत्र कर्म के क्षय से निष्पन्न ७. नाम कर्म के क्षय से निष्पन्न ८. अन्तराय कर्म के क्षय से निष्पन्न
(१६-२२) (२३-२४) (२५-२६) (२७-३१)
दूसरा प्रकार
संस्थान, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श तथा वेद के आधार पर इकतीस गुणों का विभाजन इस प्रकार है१. संस्थान के पांच-न परिमंडल, न वृत्त, न त्रिकोण, न चतुष्कोण और न आयत । २. वर्ण के पांच-न कृष्ण, न नील, न लाल, न पीत और न शुक्ल । ३. गंध के दो-न सुगंध और न दुर्गन्ध । ४. रस के पांच-न तिक्त, न कट, न कषाय, न अम्ल और न मधुर । ५. स्पर्श के आठ-न ककर्श, न मृदु, न गुरु, न लघु, न शीत, न उष्ण, न स्निग्ध और न रूक्ष । ६. वेद के तीन-न स्त्रीवेद, न पुरुष वेद, न नपुंसक वेद । ७. न शरीरवान्, न जन्मधर्मा और न लेपयुक्त ।।
आत्मा की स्वरूप-व्याख्या में ये गुण आचारांग में भी निर्दिष्ट हैं। २. जब सूर्य... 'दोख पड़ता है (जया णं सूरिए ... हव्वमागच्छइ) :
सूर्य के १४८ मंडल होते हैं। मंडल का अर्थ है-ज्योतिष-चक्र का मार्ग या कक्ष। जम्बूद्वीप में १८० योजन में ६५ मंडल हैं और लवणसमुद्र में ३३० योजन में ११६ मंडल हैं। उनमें सर्व-बाह्य अर्थात् समुद्र में रहे हुए मंडलों में अन्तिम मंडल का आयाम-विष्कंभ १००६६० योजन है। गोलाकार के रूप में उसकी परिधि ३१८३१५ योजन होती है। सूर्य इतने क्षेत्र का अवगाहन दो दिन-रात में करता है अर्थात् ६० मुहत्तों में सूर्य ३१८३१५ योजन क्षेत्र को पार करता है। इसके अनुसार एक मुहूर्त में वह ५३०५१३ योजन क्षेत्र को पार करता है।
जब सूर्य सर्व-बाह्य-मंडल में होता है, तब दिन बारह मुहूर्त का होता है। आधे दिन के छह मुहूर्त होते हैं । ५३०५१५ को छह से गुणित करने पर दीखने का गतिप्रमाण प्राप्त होता है। वह ३१८३१-१ योजन होता है। अर्थात् सूर्य जब इतना दूर होता है, तब भरतक्षेत्र में रहने वाला मनुष्य उसे देख सकता है ।' ३. अभिवद्धित मास .." (अभिवड्डिए णं मासे...)।
जिस वर्ष में अधिक मास होता है, उसे अभिवद्धित वर्ष कहते हैं। उसके ३८३४४ दिन होते हैं अथवा तेरह
चन्द्रमास होते हैं। एक-एक चन्द्रमास २९ ३२ दिन का होता है। सातिरेक का अर्थ है-एक अहोरात्र का १२१ भाग
१२४
अधिक।
४. आदित्य मास.....(आइच्चे णं मासे......):
सूर्य जितने समय में एक राशि का भोग करता है, उतने समय को एक आदित्य-मास कहते हैं। कुछ विशेष-न्यून का अर्थ है-अर्द्ध अहोरात्र जितना न्यून ।'
१. अावश्यक, प्रतिक्रमणाध्ययन, पृष्ठ १५१, १५२ । २. आयारो ५/१२७-१३४ । ३. समवायांगवृत्ति, पत्र ५३, ५४ । ४. वही, पन ५४। ५. बही. पत्र ५४।
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