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________________ समवानो समवाय ३० : सू०२-३ शठो निकृतिप्रज्ञानः, कलुषाकूल चेताः आत्मनश्चावोधिकः, महामोहं प्रकरोति ।। २६. सढे नियडीपण्णाणे, कलुसाउलचेयसे अप्पणो य अबोहीए, महामोहं पकुवइ ॥ (युग्मम्) ३०. जे कहाहिगरणाई, संपउंजे पुणो पुणो। सव्वतित्थाण भेयाय, महामोहं पकुव्वइ ॥ सेवा) नहीं करता, वह शठ, मायाप्रज्ञान (छद्मग्लानवेषी), पाप से पंकिल चित्त वाला व्यक्ति दुर्लभबोधि होता है। ऐसा व्यक्ति महामोहनीय कर्म का बंध करता है। य: कथाधिकरणानि, संप्रयुङ क्ते सर्वतीर्थानां भेदाय, ___ महामोहं पुनः पुनः ।। ३०. जो व्यक्ति सर्व तीर्थों के भेद के लिए कथा और अधिकरण का बार-बार संप्रयोग करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। प्रकरोति ॥ ३१. जे य आहम्मिए जोए, संपउंजे पुणो पुणो। सहाहे सहीहेडं, महामोहं पकुव्वइ ॥ यश्चार्मिकान् योगान्, संप्रयुङ क्ते पुनः पुनः ।। श्लाघाहेतोः सखिहेतोः, महामोहं प्रकरोति ।। ३१. जो व्यक्ति श्लाघा अथवा मित्रगण के लिए आर्मिक योग (निमित्त, वशीकरण आदि) का बार-बार संप्रयोग करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। ३२. जो व्यक्ति मानुषी अथवा पारलौकिक भोगों का अतृप्तभाव से आस्वादन करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। ३२. जे य माणुस्सए भोए, यश्च मानुष्यकान् भोगान्, अदुवा पारलोइए। अथवा परलौकिकान् । तेऽतिप्पयंतो आसयइ, तेष्वतृप्यन् आस्वदते, महामोहं पकुव्वइ ॥ __ महामोहं प्रकरोति ॥ ३३. इड्डी जुई जसो वण्णो, ऋद्धिद्य तिर्यशो वर्णः, देवाणं बलवीरियं ।। देवानां बलवीर्यम् । तेसि अवण्णवं बाले, तेषामवर्णवान वाल:, महामोहं पकुव्वइ ॥ महामोहं प्रकरोति ॥ ३३. जो व्यक्ति देवों की ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण और बल-वीर्य का अवर्णवाद बोलता है-उनका अपलाप करता हैवह महामोहनीय कर्म का बंध करता ३४. अपस्समाणो पस्सामि, देवे जक्खे य गुज्झगे। अण्णाणि जिणपूयट्टी, महामोहं पकुव्वइ ॥ अपश्यन् पश्यामि, देवान् यक्षांश्च गुह्यकान् । अज्ञानी जिनपूजार्थी, महामोहं प्रकरोति ॥ ३४. जो अज्ञानी जिन की भांति पूजा का अर्थी होकर देव, यक्ष और गुह्यक को नहीं देखता हुआ भी कहता है कि 'मैं उन्हें देखता हूं', वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। २. थेरे णं मंडियपुत्ते तीसं वासाइ स्थविर: मण्डितपुत्र: विशद् वर्षाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता सिद्ध श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा सिद्धः बुद्धः बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिणिव्वुडे मुक्तः अन्तकृत: परिनिर्व तः सर्वदुःख- सव्वदुक्खप्पहीणे। प्रहीणः । ३. एगमेगे णं अहोरत्ते तीसं महत्ता एकैकं अहोरात्रं त्रिंशद्मुहूर्तानि मुहत्तग्गेणं पण्णत्ते। एएसि णं मुहूर्ताग्रेण प्रज्ञातम्। एतेषां त्रिंशतो तीसाए मुहुत्ताणं तीसं नामधेज्जा मुहुर्तानां त्रिंशन्नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, पण्णत्ता, तं जहा-रोद्द सेते मित्ते तद्यथा- रौद्र श्रेयान् मित्र व युः सुगत वाऊ सुपीए अभियंदे माहिदे पलंबे अभिचन्द्रः माहेन्द्रः प्रलम्ब: ब्रह्म सत्यं २. स्थविर मंडितपुत्र तीस वर्ष तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत और परिनिर्वृत हुए तथा सर्व दुःखों से रहित हुए। ३. मुहूर्त के परिमाण से प्रत्येक अहोरात्र तीस मुहूर्त का होता है। इन तीस मुहूर्तों के तीस नाम हैं, जैसे-रौद्र, श्रेयान्, मित्र, वायु, सुपीत, अभिचन्द्र, माहेन्द्र, प्रलम्ब, ब्रह्म, सत्य, आनन्द, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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