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________________ टिप्पण १ : शबल (सबला) जिस आचरण के आसेवन से चारित्र धब्बों वाला होता है, उस आचरण या आचरण कर्ता को 'शबल' कहा जाता है । छोटे अपराध में साधु को 'मूल' प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता। किन्तु वह अपराध उसके चारित्र को चितकबरा बना देता है, इसलिए ऐसे दोषों को 'शबल' की संज्ञा दी गई है। शबल इक्कीस हैं। उनमें से कुछेक की व्याख्या इस प्रकार १. सागारिकपिंड-सामान्यतः सागारिक का अर्थ होता है-गृहस्थ । प्रस्तुत प्रसंग में इसे 'शय्यातर' का वाचक माना है। स्थानदाता को शय्यातर कहा जाता है।' ६. प्रस्तुत शबल में भोजन संबंधी तीन दोषों का ग्रहण किया है। इनके उपलक्षण से प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट आदि दोष भी गृहीत कर लेने चाहिए। ८. प्राचीन परंपरा के अनुसार अनेक गण थे और उन गणों के मुनि एक गण से दूसरे गण में अपक्रमण करते थे। उनके अपक्रमण के सात कारण स्थानांग सूत्र में निर्दिष्ट हैं।' इस आलापक से यह निश्चित होता है कि अपक्रमण करने वाले मुनि को अनिवार्यतः छह महीनों तक उस गण में रहना होता था । इस अवधि से पूर्व यदि वह उस गण से अपक्रमण कर दूसरे गण में जाता है तो 'गाणंगणिय' दोष का भागी होता है। ६. उदकलेप का अर्थ है-नाभिप्रमाण जल का अवगाहन करना।' हरिभद्र ने अर्धजंघा तक के जल के अवगाहन को 'संघट्टन' और नाभिप्रमाण जल के अवगाहन को 'लेप' माना है।" १२. इसमें 'आउट्टियाए' शब्द प्रयुक्त है। यह शब्द सात आलापकों में प्रयुक्त है । इसके दो अर्थ किए हैं १. जानते हुए। २. सम्मुख जाकर।' समवायांग के वृत्तिकार ने आकुट्या के अर्थ में 'उपेत्य' शब्द व्यवहृत किया है। उपेत्य के दो अर्थ होते हैं—पास में जाकर या जानकर। १. समवायांगवृत्ति, पन्न ३८ शबलं-कर्बुरं चारित्नं यः क्रियाविशेषेर्भवति ते शबलास्तद्योगात्साघवोऽपि । २. मावश्यक, हारिभद्रीया वृत्ति, भाग २, पृष्ठ ११०: प्रवराहमि पयणुए जेण उ मूलं न वच्चई साहु। सबलेंति तं चरितं, तम्हा सबलत्तणं बॅति ।। ३. समवायांगवृत्ति, पत्न ३८ सागारिकः-स्थानदाता। 1. समवायांगवृत्ति, पन २८ : पोद्देशिक क्रीतमाहृत्य दीयमानं (च) भुजानः उपलक्षणत्वात्पामिच्चाच्छे द्यानिसृष्टग्रहणमपीह द्रष्टव्यमिति । ५. ठाणं ७/१। ६. समवायांगवृत्ति, पत्र ३८: उदकलेपश्च नाभिप्रमाणजलागावहनमिति । ७. मावश्यक, हारिभद्रीया वृत्ति, भाग २, पत्र, १११ : जंघाध संघट्टो नाभिर्लेप : ८. दशाश्रुतस्कंधचूर्णि, पृष्ठ १०: भाउट्टिया णाम जाणतो। ६. समवायांगवृत्ति, पन्न ३८ : माकुट्टया.."उपेत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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