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समवानो
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समवाय ३५ : टिप्पण
१६. उत्पादिताछिन्नकौतुहल-श्रोतृगण में अविच्छिन्न कुतुहल उत्पन्न करने वाला वचन । २०. अद्भुत। २१. अनतिविलम्बित-धाराप्रवाही वचन । २२. विभ्रमादि विमुक्त
विभ्रम-वक्ता के मन की भ्रान्ति । विक्षेप-वक्ता की अभिधेय अर्थ के प्रति अनासक्तता। किलिकिंचित्-दोष, भय, अभिलाषा आदि मानसिक भावों का प्रदर्शन ।
उक्त दोषों तथा इस कोटि के अन्य मानसिक आवेगों से जनित दोषों के संस्पर्श से मुक्त वचन । २३. अनेकजातिसंश्रयाद् विचित्र- अनेक जातियों (वर्णनीयवस्तु के रूप का वर्णनों) के संश्रयण से विचित्र वचन । २४. आहितविशेष-सामान्य वचन की अपेक्षा विशेषता सम्पन्न वचन । २५. साकार-विच्छिन्न वर्ण, पद और वाक्य के द्वारा आकारप्राप्त वचन । २६. सत्वपरिग्रह-साहसपूर्ण वचन । २७. अपरिखेदित-अनायास निकला हुआ वचन ।
२८. अव्युच्छेद-विवक्षित अर्थ की सिद्धि होने तक अनवच्छिन्न प्रवाह वाला वचन । २-३. पैंतीस धनुष्य ऊंचे (पणतीसं धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं)
दत्त सातवें वासुदेव और नन्दन सातवें बलदेव थे । आवश्यक नियुक्ति (गा० ४०३) के अनुसार उनकी ऊंचाई छब्बीस धनुष्य की है और यह सुबोध है, क्योंकि ये दोनों अरनाथ और मल्लिनाथ के अन्तराल काल में हुए हैं। अरनाथ और मल्लिनाथ की ऊंचाई क्रमशः तीस और पचीस धनुष्य की थी। अतः उनके अन्तराल-काल में होने वाले छठे और सातवें वासुदेव की-ऊंचाई उनतीस और छब्बीस धनुष्य होनी चाहिए। किन्तु प्रस्तुत सूत्रों में सातवें वासुदेव और बलदेव की ऊंचाई पैंतीस-पैंतीस धनुष्य की बतलाई गई है । परन्तु यदि ये दोनों (दत्त और नन्दन) कुन्थु के अन्तराल-काल में होते तो उनकी उक्त ऊंचाई संगत हो जाती। किन्तु उनका अस्तित्व-काल अरनाथ और मल्लिनाथ के अन्तराल-काल में माना है इसलिए
उनकी ऊंचाई का उक्त प्रमाण सहज बुद्धिगम्य नहीं है।' ४. पैंतीस लाख नरकावास हैं (पणतीसं निरयावाससयसहस्सा)
दूसरी पृथ्वी में पचीस लाख और चौथी पृथ्वी में दस लाख नरकावास हैं।
१. समवायांगवृत्ति, पन ६०:
___ दत्त:-सप्तमवासुदेवः नन्दनः-सप्तम बलदेवः एतयोश्चावश्यकाभिप्रायेण षड्विंशतिर्धनुषामच्चत्वं भवति, सुबोधं च तत्, यतोऽरनाथमल्लिस्वामीनोरन्तरे ताभिहिती यतोऽवाचि--"अरमल्लिअंतरे दोणि केसवा पुरिसपुंडरीय दत्त" त्ति, अरनाथमल्लिनाथयोश्च क्रमेण विशत्पञ्चविंशतिश्च धनुषामुच्चत्वं, एतदन्तरालवत्तिनोश्च वासुदेवयो. षष्ठ सप्तमयोरेकोन त्रिंशत्षड्विंशतिश्च धनुषां यज्यत इति, इहोक्ता तु पञ्चतिशत् स्यात् यदि दत्तनन्दनो कुन्थनाथतीर्थकाले भवतो, न चैतदेवं जिनान्तरेष्वधीयत इति दुरवबोधमिदमिति ।
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