________________
समवाश्र
८६
समवाय १५ : टिप्पण
१३. वेतरणी - ये नरकपाल वैतरणी नदी की विकुर्वणा करते हैं। वह नदी पीब, लोही, केश और हड्डियों से भरी - पूरी होती है । उसमें खारा गरम पानी बहता है। उस नदी में नारकीय जीवों को बहाया जाता है ।
१४. खरस्वर-ये नरकपाल छोटे-छोटे धागों की तरह सूक्ष्मरूप से नारकों के शरीर को चीरते हैं । फिर उनके और भी सूक्ष्म टुकड़े करते हैं। उनको पुनः जोड़कर सचेतन करते हैं और कठोर स्वर में रोते हुए नारकों को शाल्मली वृक्ष पर चढ़ने के लिये प्रेरित करते हैं । वह वृक्ष वज्रमय तीखे कांटों से संवृत होता है। नारक उस पर चढते । नरकपाल पुनः उन्हें खींचकर नीचे ले आते हैं। यह क्रम चलता रहता है ।
१५. महाघोष - ये सभी असुर देवों में अधम जाति के माने जाते हैं । ये नरकपाल नारकों की भीषण वेदना को देखकर परम मुदित होते हैं ।
प्रस्तुत समवाय में नौवें परमाधार्मिक का नाम है 'असिपत्र' और दसवें का नाम है 'धनु' । सूत्रकृतांग की निर्युक्ति के अनुसार नौवें का नाम है 'असि' और दसवें का नाम है 'असिपत्र' या 'धनु' ।'
२. ध्रुवराहू ( ध्रुवराहू) :
जैन खगोल के अनुसार राहू दो माने जाते हैं-पर्वराहु और ध्रुवराहु । जो पूर्णिमा या अमावस्या को चन्द्र या सूर्य का ग्रहण उत्पन्न करता है, वह 'पर्व'राहु' है । जो सदा चन्द्र के पास ही संचरण करता है, वह 'ध्रुवराहु' है । इसका विमान कृष्ण होता है और यह सदा चन्द्र विमान के नीचे चार अंगुल के व्यवधान से संचरण करता है :.
किन्हं राहुविमाणं, निच्चं चंदेण होइ अविरहिअं । चउरंगुलमप्पत्तं, हेट्ठा चंदस्स तं चरइ ॥ '
३. लेश्या (लेसं )
चन्द्रमा का मण्डल दीप्ति का विकिरण करता है, इसलिए कार्य-कारण के अभेदोपचार की दृष्टि से मण्डल के स्थान में लेश्या का प्रयोग किया गया है।'
४. प्रतिपदा करता है ( पढमाए "पण्णरसमं भागं ) :
चन्द्र- मंडल के सोलह भाग होते हैं। एक भाग सदा उद्घाटित रहता है और शेष पन्द्रह भाग कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक, इन पन्द्रह दिनों में प्रतिदिन एक-एक भाग के अनुपात से आवृत होते जाते हैं। इसी प्रकार शुक्लपक्ष में प्रतिपदा से पूर्णिमा तक, एक-एक भाग के अनुपात से उद्घाटित होते जाते हैं ।
चन्द्र-मंडल का परिमाण ५६ / ६१ योजन है । राहु एक ग्रह है और ग्रह के विमान का परिमाण आधा योजन बताया गया है । चन्द्र-विमान बड़ा है और राहु-विमान छोटा । इस दशा में राहु-विमान चन्द्र विमान को कैसे आवृत कर सकेगा ? वृत्तिकार का अभिमत है कि ग्रह के विमानों का परिमाण जो अर्ध योजन बतलाया गया है, वह प्रतिपादन प्रायिक है । अतः राहु विमान के एक योजन के होने की संभावना की जा सकती है।
वृत्तिकार ने दूसरी संभावना यह की है कि राहु-विमान को छोटा मान लेने पर भी चन्द्र -विमान को आवृत करने में कोई आपत्ति नहीं आती, क्योंकि राहु के विमान से अन्धकारमय रश्मिजाल विपुल मात्रा में विकिरण होता है और वह चन्द्र - विमान को आच्छादित कर देता है । *
५. सूत्र ४ :
नक्षत्र-क्षेत्र [आकाश-भाग ] के तीन भेद हैं
१. समक्षेत्र - चन्द्रमा द्वारा तीस मुहूर्त में भोगा जाने वाला नक्षत्र क्षेत्र ।
१. सूत्रकृतांगनिर्युक्ति, ५६,६० ।
२. समयांगवृत्ति, पत्र २८ :
द्विविधो राहुः भवति–पर्व राहुध्रुव राहुश्च तत्र यः पर्वणि पौर्णमास्याममावास्यायां वा चन्द्रादित्ययोरुपरागं करोति स पर्वराहु, यस्तु चन्द्रस्य सदैव
सन्निहितः सञ्चरति स ध्रुवराहुः ।
३. समवायांगवृत्ति, पत्र २० :
लेपया - दीप्तिस्तत्करणत्वात् मण्डलं लेश्या ।
४. समवायांगवृत्ति, पत्र २६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org