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________________ समवाश्रो ६० २. अर्द्धसमक्षेत्र - चन्द्रमा द्वारा १५ मुहूर्त में भोगा जाने वाला नक्षत्र क्षेत्र । ३. द्वयर्द्धसमक्षेत्र --- चन्द्रमा द्वारा ४५ मुहूर्त में भोगा जाने वाला नक्षत्र क्षेत्र । प्रस्तुत आलापक में पन्द्रह मुहूर्त्त तक योग करने वाले छह नक्षत्रों का उल्लेख है। ये छह नक्षत्र चन्द्रमा द्वारा पहले तथा पीछे सेवित होते हैं। ये चन्द्रमा के समयोगी माने जाते हैं । प्रस्तुत आगम के ४५ / ७ में पैंतालीस मुहूर्त्त तक योग करने वाले नक्षत्रों का उल्लेख है । विशेष विवरण के लिए देखें--- ठाणं ६/७३-७५, टिप्पण पृष्ठ ६६८, ६६६ । ६. चंत्र और आश्विन में दिन रात (चेत्तासोएसु दिवसो राई ) : यह प्रतिपादन व्यवहार (स्थूल ) नय की दृष्टि से किया गया है। निश्चयनय की दृष्टि से चैत्र मास में मेष संक्रान्ति का पहला दिन-रात और आश्विन मास में तुला संक्रान्ति का पहला दिन-रात पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्त का होता है । ७. प्रयोग (पओगे ) वृत्तिकार ने प्रयोग के दो अर्थ किए हैं- १. आत्मा का क्रिया परिणामरूप व्यापार । समवाय १५ : टिप्पण २. आत्मा के साथ कर्म का योग होना । इसका सामान्य अर्थ है प्रवृत्ति । प्रयोग (योग) पन्द्रह हैं। इनमें मन के चार, वचन के चार और काया के सात प्रयोग हैं। मन जब सत्य के अर्थ - चितन में प्रवृत्ति करता है तब उसे 'सत्य मनः प्रयोग' कहते हैं। इसी प्रकार शेष मनः प्रयोगों और वचन प्रयोगों के विषय में जानना चाहिए। नौ की संख्या से पन्द्रह की संख्या तक चार शरीरों-औदारिक, वैक्रिय, आहारक और कार्मण शरीर की सात प्रकार की प्रवृत्तियों का उल्लेख है --- १. औदारिकशरीर काय प्रयोग — औदारिक शरीर वाले मनुष्यों तथा तिर्यंचों में शरीर पर्याप्ति के होने के बाद होने वाली प्रवृत्ति । २. औदारिकमिश्रशरीर काय प्रयोग - यह चार प्रकार से होता है (क) मनुष्य एवं तिर्यंच गति में उत्पन्न होने के समय शरीरपर्याप्ति का पूर्ण बंध न होने की अवस्था तक कार्मण काय योग के साथ | (ख) वैयिलब्धि संपन्न मनुष्य और तिथंच वैक्रिय रूप बनाते हैं । परन्तु जब तक वह पूर्ण नहीं होता, तब तक यि काययोग के साथ । (ग) विशिष्ट शक्ति संपन्न योगी आवश्यकतावश जब तक आहारक शरीर पूरा नहीं बना लेता तब तक आहारक काय-योग के साथ | में कार्मण के साथ । (घ) केवली समुद्घात के दूसरे, छठे और सातवें समय ३. वैक्रियशरीर काय प्रयोग — देवता और नारकी में शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद तथा मनुष्य और तिर्यंच में लब्धि-जन्य क्रिय शरीर की जो क्रिया होती है वह वैक्रियशरीर काय प्रयोग है । ४. वैक्रियमिश्रशरीर काय प्रयोग - यह दो प्रकार से होता है- (क) देवता और नारकी में उत्पन्न होने वाले जीव जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं कर लेते, उस अवस्था में कार्मण काययोग के साथ वैक्रिय मिश्रशरीर काय प्रयोग होता है । (ख) औदारिकशरीर वाले मनुष्य और तिर्यच अपनी विशिष्ट लब्धि से वैक्रिय रूप बनाते हैं और उसको फिर समेटते हैं । परन्तु जब तक औदारिक शरीर पुनः पूर्ण नहीं बन जाता तब तक औदारिक काय-योग के साथ वैक्रियमिश्रशरीर काय प्रयोग होता है । Jain Education International १. समवायांगवृत्ति, पत्र २६ : स्थूलन्यायमाश्रित्य चैलेऽश्वयुजि च मासे पञ्चदशमुहूर्ती दिवसो भवति रात्रिश्च निश्चयतस्तु मेषसंक्रान्तिदिने तुलासंक्रान्तिदिने चैवं दृश्यमिति । २. समवायांगवृत्ति, पत्र २६ : प्रयोजनं प्रयोगः सपरिस्पन्द ग्रात्मनः क्रियापरिणामो व्यापार इत्यर्थः अथवा प्रकर्षेण युज्यते संयुज्यते सम्बध्यतेऽनेन क्रियापरिणामेन कर्मणा सहात्मेति प्रयोगः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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