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________________ समवानो १७६ समवाय ३३ : सू०१ १७. सेहे राइणिएण सद्धि असणं शैक्षः रात्निकेन सार्द्ध अशनं वा पानं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगह्य तद पडिगाहेत्ता तं राइणियं अणा- रात्निकं अनापृच्छ्य यस्मै यस्मै पुच्छित्ता जस्स-जस्स इच्छइ तस्स- इच्छति तस्मै तस्मै ‘खद्धं-खद्धं' (प्रचुरं- । तस्स खद्धं-खद्धं दलयइ- प्रचुरं) ददाति --- आशातना शैक्षस्य। आसायणा सेहस्स। १७. शैक्ष रानिक मुनि के साथ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य लाकर, रात्निक मुनि के पूछे बिना ही, जिसजिस को देना चाहता है उस-उस को वह आहार प्रचुर मात्रा में देता है, यह शक्षकृत आशातना है। १८. सेहे असणं वा पाणं वा शैक्षः अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं खाइम वा साइमं वा पडिगाहेत्ता वा प्रतिगृह्य रात्निकेन सार्द्ध आहरन् राइणिएण सद्धि आहरेमाणे तत्थ तत्र शैक्षः ‘खद्धं-खद्धं' (प्रचुरं-प्रचुरं) सेहे खद्धं-खद्धं डायं-डायं ऊसढं- 'डायं-डाय' (पत्रशाकं-पत्रशाक) ऊसढं रसितं-रसितं मणण्णं-मणणं उच्छ्रितं-उच्छितं रसितं-रसित मनोज्ञमणाम-मणामं निद्धं-निद्धं लक्खं- मनोज्ञं मनआपं-मनआपं स्निग्ध-स्निग्धं लुक्खं आहरेत्ता भवइ- रूक्ष-रूक्षं आहर्ता भवति-आशातना आसायणा सेहस्स। शैक्षस्य । १८. शैक्ष अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य लाकर रानिक मुनि के साथ खाता हुआ डाक' उच्छृत (ताजा), रसित' मनोज्ञ, मनोभिलषणीय, स्निग्ध और रुक्ष-जो आहार श्रेष्ठ होता है उसे प्रचुर मात्रा में (खद्धं-खद्धं) खाता है, यह शैक्षकृत आशातना है। १६. सेहे राइणियस्स वाहर- शैक्षः रात्निकस्य व्याहरमाणस्य अप्रतिमाणस्स अपडिसुणेत्ता भवइ- श्रोता भवति-आशातना शैक्षस्य । आसायणा सेहस्स। १६. रानिक मुनि के कहने पर शैक्ष उसके वचन को अनसुना कर देता है, यह शैक्षकृत आशातना है।' २०. सेहे राइणियस्स खद्धं-खद्धं शैक्षः रात्निकस्य 'खद्धं-खद्धं' (उच्चैःवत्ता भवति-आसायणा सेहस्स। उच्चैः) वक्ता भवति-आशातना शैक्षस्य। २०. शैक्ष रानिक मुनि के सामने उद्धततापूर्वक बोलता है, यह शैक्षकृत आशातना है। २१. सेहे राइणियस्स किं' ति शैक्षः रात्निकस्य 'कि' इति वदिता वइत्ता भवति आसायणा भवति-आशातना शैक्षस्य । सेहस्स। २१. शैक्ष रानिक मुनि को 'क्या है' इस प्रकार कहता है, यह शैक्षकृत आशातना है। २२. सेहे राइणियं 'तुम'ति वत्ता शैक्षः रात्निकं त्वं' इति वक्ता भवति–आसायणा सेहस्स। भवति-आशातना शैक्षस्य। २२. शैक्ष रालिक मुनि को 'तू' कहता है, यह शैक्षकृत आशातना है। २३. सेहे राइणियं तज्जाएण- शैक्षः रालिकं तज्जातेन-तज्जातेन तज्जाएण पडिभणित्ता भवइ- प्रतिभणिता भवति–आशातना आसायणा सेहस्स। शैक्षस्य । २३. रानिक मुनि जो कहता है, शैक्ष वहो प्रत्युत्तर में कह देता है, जैसे"आर्य ! ग्लान की सेवा क्यों नहीं करते हो ?' यह कहने पर शैक्ष कहता है-'तुम क्यों नहीं करते ?', यह शैक्षकृत आशातना है। २४. सेहे राइणियस्स कहं शैक्षः रात्निकस्य कथां कथयतः 'इति । कहेमाणस्स 'इति एवं ति वत्ता न एवं' इति वक्ता न भवति---आशातना भवति - आसायणा सेहस्स। शैक्षस्य। २४. शैक्ष रानिक मुनि की धर्म-कथा का अनुमोदन नहीं करता, यह शैक्षकृत आशातना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003591
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size23 MB
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